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Chandresh Kumar Chhatlani

Others

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Chandresh Kumar Chhatlani

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दो टुकड़े

दो टुकड़े

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कभी घरों की चाबियाँ कुछ यों खो जाती हैं

दीवारें तो क्या छतें भी दो हो जाती हैं।


बिछड़े मन, हो दो सिरों वाले सांप जाते हैं

बिना डसे लेकिन बचपन काँप जाते है।


ताकते इक-दूजे को चंद टुकड़े खिड़की के

उंगली अंगूठी की पैर लगते हैं नर्तकी के।


सरहदें जो हाथों पे लकीरों के संग खिंच जाती है

ये कितने इंच का सीना कितनी गहरी छाती है?


सोचता हूँ कि आज भी क्या ऐसे दंपति हैं

जिनके नाम साथ हों जो नल-दमयंती हैं।


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