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Dr. Nisha Mathur

Others

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दो पैसे की पुड़िया

दो पैसे की पुड़िया

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एक दो पैसे की पुड़िया में कभी मुझ गरीब के नाम,

क्या कोई लेकर आयेगा मेरे लिये जीने का पैगाम?

 

मुखौटे लगाकर, और खूबसूरत लफजों की जुबान,

क्या मुझे सड़क से उठाकर कभी कोई देगा आराम।

 

कुछ थोड़ी सी चांदनी, लाकर कुछ थोड़ी सी धूप

मेरे पेट में जलती हुयी, कब मिटेगी, ये मेरी भूख।

 

माँगू थोड़ी सी हँसी, फिर चाहूँ थोड़ी सी खुशी

एक मैली फटी सी चादर, क्या यहीं है मेरी बेबसी!

 

बंदरबांट से बंट गये है, धरती माँ के दाने दाने,

खाली चूल्हा, गीली लकड़ी पे कैसे अरमान पकायें।

 

लोग कहते है कि मजलूम का कोई घर नहीं होता,

फरिश्तो की दुआओं में शिद्दत और रहम नहीं होता।

 

आज! मैं इस सड़क पे एक चुभन लिये पल रहा हूँ

पूछो तो सही जन्म से ही, कैसे मर मर के मर रहा हूँ।

 

क्या मेरी गरीबी और भूख की पहचान कभी बदलेगी,

क्या वो दो पैसे की पुड़िया, मेरा भाग्य भी बदलेगी?


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