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Manju Rani

Others

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Manju Rani

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धोखा खा दर्द के संग चली

धोखा खा दर्द के संग चली

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जिंदगी किस डगर पर चली

धोखा खा दर्द के संग चली ।

हर पल अश्रुओं को

पलकों में थामे चली ।

कहीं जग देख न ले

अपनी सूताओं को

इन में बसा कर चली ।

कर्म को शस्त्र बनाकर चली ।

टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर

दृढ़ता की जुराब चढ़ा कर चली ।

बरखा में संयमता के

साथ, पाँव जमा जमा कर चली ।

मूसलाधार बारिश में

संकल्प की बरसाती ओढ़कर चली ।

कड़ी धूप में

धैर्य और साहस का छाता लेकर चली ।

पैरों में क्षमता की चप्पल डाल कर चली ।

दिल के छालों पर मरहम लगा कर चली ।

रूक न जाऊँ कहीं

इसलिए अपने ज़ख्म कुरेदती चली ।

दुनिया की बातों को समुद्र में बहाती चली ।

अपने आक्रोश को स्वयं का बल बनाकर चली ।

लोगों के दिलों की गहराइयों को

अपने ही कर्मों से नापती चली ।

मान-अपमान का घूँट पीती चली ।

सर पर लटकी रीति-रिवाजों की

तलवार को गिराती चली ।

अपनी परछाइयों और स्वयं को

आत्मनिर्भर बनाने चली ।

उन बर्फीली पहाड़ियों की श्रृंखलाओं को

अपना क्षितिज बना कर चली ।

सर्दी की चीरती हवाओं से बचने के लिए

शौर्य की क्रीम मलकर चली ।

जीवन के हर मौसम में धीर धर

संभल-संभल कर चली।

संपूर्ण जीवन धूप-छाँव में चली ।

जिंदगी की आखिरी सीढ़ी ,धोखा दे

अंधेरी गलियों में छोड़ चली ।

और मैं इन अंधेरी गलियों को छोड़ चली ।

जिंदगी न जाने किस डगर पर चली ।


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