धोखा खा दर्द के संग चली
धोखा खा दर्द के संग चली
जिंदगी किस डगर पर चली
धोखा खा दर्द के संग चली ।
हर पल अश्रुओं को
पलकों में थामे चली ।
कहीं जग देख न ले
अपनी सूताओं को
इन में बसा कर चली ।
कर्म को शस्त्र बनाकर चली ।
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर
दृढ़ता की जुराब चढ़ा कर चली ।
बरखा में संयमता के
साथ, पाँव जमा जमा कर चली ।
मूसलाधार बारिश में
संकल्प की बरसाती ओढ़कर चली ।
कड़ी धूप में
धैर्य और साहस का छाता लेकर चली ।
पैरों में क्षमता की चप्पल डाल कर चली ।
दिल के छालों पर मरहम लगा कर चली ।
रूक न जाऊँ कहीं
इसलिए अपने ज़ख्म कुरेदती चली ।
दुनिया की बातों को समुद्र में बहाती चली ।
अपने आक्रोश को स्वयं का बल बनाकर चली ।
लोगों के दिलों की गहराइयों को
अपने ही कर्मों से नापती चली ।
मान-अपमान का घूँट पीती चली ।
सर पर लटकी रीति-रिवाजों की
तलवार को गिराती चली ।
अपनी परछाइयों और स्वयं को
आत्मनिर्भर बनाने चली ।
उन बर्फीली पहाड़ियों की श्रृंखलाओं को
अपना क्षितिज बना कर चली ।
सर्दी की चीरती हवाओं से बचने के लिए
शौर्य की क्रीम मलकर चली ।
जीवन के हर मौसम में धीर धर
संभल-संभल कर चली।
संपूर्ण जीवन धूप-छाँव में चली ।
जिंदगी की आखिरी सीढ़ी ,धोखा दे
अंधेरी गलियों में छोड़ चली ।
और मैं इन अंधेरी गलियों को छोड़ चली ।
जिंदगी न जाने किस डगर पर चली ।
