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AKSHAT YAGNIC

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AKSHAT YAGNIC

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धन की है माया अपार

धन की है माया अपार

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सागर की भांति है धन की माया

कोई जिसे पार नहीं कर पाया

है नहीं इस माया का कोई अंत

कभी बनता राक्षस है, तो कभी संत

राक्षस बन के है फैलाता ये द्वेष

पर गरीब का है सहारा, जब हो संत का वेश

धन कमाइए उतना जिसमे हो जाये बसर

परंतु मत लगाइए धन में ध्यान हर पहर

धन के पीछे भागने से होगा नाश

करिए परिश्रम, तब बांधेगी सफलता अपना पाश

वो व्यक्ति जीवित हो कर भी है मृत के समान

जिसने केवल धन को माना जीवन का संपूर्ण ज्ञान

जीवन है बांटने के लिए, बात ये मेरी लो मान

किसी निर्धन की मदद करके देखिये

मिलेगा सर्वस्व सम्मान

केवल धन से जो सम्मान करते हैं अर्जित

वह अपनी आत्मा के सुख से रेह जाते हैं वंचित

धन का अत्यधिक मोह ले जाएगा मृत्यु की ओर

जीवन है संतुलन का नाम, धन का नहीं कोई छोर


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