चलो शिक्षा को बदलें
चलो शिक्षा को बदलें
मैं जब सुबह उठता,
सुबह के क्रिया कलाप करके
बाहर निकलता,
बच्चों को स्कूल जाते देखता,
मन आज का और हमारे समय का
अंतर याद कराता।
मैं वही दो-चार किताबें बस्ते में
डाले हुए बढ़ जाता था,
उनमें कुछ अध फट्टी,
कुछ की जिलद निकली हुई,
जैसे बच्चे ने इतनी मेहनत की,
कि बेचारी किताब तंग हो गई,
हमेशा कक्षा में कभी मन
नहीं लगता था,
मन खेल के मैदान में घूमता,
और टीचर पढ़ाता होता,
कभी कभी खिड़की
से बाहर देखने पे,
टीचर अच्छा खासा
लैक्चर सुना देता था,
बस छुट्टी का इंतजार रहता,
जैसे ही छुट्टी का घंटा बजता,
सबसे पहले कक्षा से भाग उठता,
मालूम होता,
जैसे जबरदस्ती किसी को
छह घंटे के
लिए रोक कर रखा होता,
न कोई तनाव, न झंझट,
अगर स्कूल का काम हुआ ठीक,
नहीं तो उपर वाले के भरोसे,
अगले दिन,
टीचर के न आने की दुआ,
अगर आया, तो उदास,
अगर नहीं,
तो फिर जान बच गई।
आज के विद्यार्थियों को सलाम,
इतना अनुशासन,
किताबें ऐसी, जैसे अभी खरीदी,
सुबह एकदम स्त्री की हुई ड्रेस,
स्कूल बस के लिए भी लाइन,
टीचर को बर्थडे गिफ्ट,
अपना बर्थडे किसी रैस्टोरैंट में,
मां-बाप की तरफ से अलग गिफ्ट,
फिर स्कूल से आते ही ट्यूशन क्लास,
फिर दुसरी, तीसरी और चौथी,
और बज जाते रात के आठ,
फिर बेचारा विधार्थी जाता थक,
देखता स्कूल डायरी,
आई होमवर्क की बारी,
क्या करे,
बेचारा डट गया,
जल्दी जल्दी लग पड़ा,
ओह बज गये गयारहा,
आंखों ने भी धोखा दे डाला,
वैसे ही लेट गया,
और एकदम सो गया।
ये सब क्या हो रहा,
वो विधार्थी है या रोबोट,
न मज़ाक, न संगीत,
न डांस-डरामा,
न खेल, न मटरगश्ती
पैदा होते ही उसको डाला
इस बोझ में,
न बचपन देखा,
बस सीधा पहुंचा बड़ों में।
सरकारें भी आती,
बहुत वादे करतीं,
किंतु विधार्थियों की हालत
वैसे की वैसी,
क्यों न ऐसा कुछ किया जाए,
विधार्थी के बारे में,
विधार्थी से पूछा जाए,
और फिर वो जो चाहें,
वही करने दिया जाए,
कोई जबरदस्ती नहीं,
कोई डांट-डपट नहीं,
बस जो मन को भाया,
वही कर दिखाया।
