चिराग थे रवि हो गए.....
चिराग थे रवि हो गए.....
एक दिन अपने पिता से हुई ताना-तानी,
तो सोचा ऐसी ज़िन्दगी नहीं बितानी,
रोज बैठा बैठा क्यों गालियाँ सुनूं,
तो भइया हमने भी कुछ करने की ठानी।
पर भइया हम तो निरह, निजर ,निखट्टू,
धोबी के भी काम न आने वाला टट्टू,
करें तो क्या करें जिससे कोई बात बने,
घर में हो थोड़ी सी इज़्ज़त और रेपुटेशन,
मिले थोड़ा प्यार न की टेंशन वाली एजुकेशन
तो भइया सोचा की घर के काम में हाथ बटाऊँ ,
इसी बहाने माता जी के साथ थोड़ा वक़्त बिताऊँ,
तो अगले ही दिन हम निकल पड़े मिशन पर,
अपने दिल में सैकड़ों सुस्पिशन भर।
पहुँचे रसोई में कहा माँ हम भी हाथ बटाएंगे,
माँ ने देखा मुस्काई कहा हम क्षमा चाहेंगे,
मैं एक्सपर्ट होकर बनाती हूँ तो ये हाल है,
लोग नाश्ता 10 को और खाना 2 को खाते हैं,
अगर आप भी साथ हुए तो लोग घर में,
शायद दिन का खाना रात की ही खा पाएंगे।
तो भइया इस जगह तो अपनी दाल नहीं गली,
पर हमने भी नाम कमाने की अगली चाल चली।
लिया थैला सोचा क्यों न बाज़ार जाऊँ,
सैर की सैर भी होगी और राशन भी लाऊँ।
पहुचे पूरे जोश में कहा "लाला राम राम",
भइया जरा कर दो राशन का इंतज़ाम।
लाला ने कहा "ये कहाँ निकल पड़े करने शुभ काम",
भइया जरा बताओ तो देने वाले चीज़ो के नाम।
हमने कहा लाला क्यों हँसाते हो, मुर्ख जान सताते हो?
बनिया तुम हो, जो जाता है सब हिसाब से तौल दो,
सबके दाम जोड़ कर टोटल हमे बोल दो।
लाला था घाघ समझ गया मेरी होशियारी,
कर डाली उसने हमें लूटने की तैयारी।
तौला उसने सब कुछ सेर-सवा सेर,
खड़ी कर के राशन की पहार, बोला लाओ रूपये 10 हज़ार।
हमने कहा लाला सामान या दुकान बेच रहे हो,
कौन सा हुआ अपराध जो मुझे नोच रहे हो।
बतकुचनी का वहाँ कोई फायदा नहीं था,
लाला के पिघलने का इरादा नहीं था।
ख़ैर हमने रुपये भरे और फक्र से घर को बढ़े,
हमें देख और सुन कर लोगो ने फिर माथा पीटा,
और धमकाया की आगे कभी काम में पैर घसीटा।
खैर भइया हम कहाँ रुकने वाले थे,
इन छोटे मोटे झटको से कहाँ टूटने वाले थे|
अब सोचा क्यों न कहीं काम पर लग जाऊँ,
अपने माँ बाप का नाम जग में बढ़ाऊं।
सोचा ग्रेजुएट हूँ कोई न कोई मिल ही जायेगी,
किसी कंपनी को हमारी भी कदर हो ही जायेगी।
तो भइया निकल पड़े हम भी खा कर दही,
अब या तो नौकरी मेरी या फिर हम नहीं।
हमें भी एक जगह काम मिल ही गया,
और हमारा कुम्हलाया चेहरा फिर खिल ही गया।
कारखाना था वो भइया बीड़ी बनाने की,
और हमें भी लत्त थी बीड़ी सुलगाने की,
सोचा काम के काम और मुफ़्त में बीड़ी भी पियूँगा,
आम तो चुसुंगा ही गुठलियों के दाम भी लूँगा।
ज़िन्दगी मस्ती में कट रही थी,
अपनी हर किसी से पट रही थी।
पर हर मौसम बहार नहीं होता,
हर पल सावन का फुहार नहीं होता।
एक दिन किस्मत को जाने किस सांप ने डंस लिया,
देखा मालिक सामने है जैसे मैंने एक कस लिया।
अब तो हमारे होश गुम डर से आँख नम,
पर हमारी इस दशा पर भी मालिक ने नहीं किया रहम।
कहा बेटा अब यहां रहने की कोई सूरत नहीं है,
कल से काम पर आने की जरुरत नहीं है।
भइया घर से तो गए, दफ्तर से भी निकाले गए,
गाय भैंसो की तरह हर जगह हकाले गए।
इस लतियायि और जुतियायि ज़िन्दगी को मिटाने जा रहे थे,
तभी देखा सामने से पिताजी आ रहे थे,
कहा बेटा! इतने से घबरा गए, हिल गए, थर्रा गए
कहना है आसान पर करना बड़ा मुश्किल,
एक रास्ता है जिससे जीत सकते हो सबका दिल।
हम फिर हड़बड़ाए, कहा राजधानी के स्पीड से बताएं।
उन्होंने कहा क्यों कर नहीं तुम कवि बन जाते,
लिख लिख कर इस जहां को खूब हँसाते ,
तो भइया उस दिन से हम कवि हो गए,
थे घर के चिराग पंकज, अब रवि हो गए।
