बसंत
बसंत
प्रेम की पीलितिमा से मेरी
धरा में प्रीत की चली पुरवाई है,
कामदेव ने तीर प्रीत का ऐसा
छोड़ा, धरा लाज से शरमाई है।
प्रीत के रंग में हुई मैं सरोबार,
सखि मेरे नयन अलसाये है,
सूरज की लालिमा बिखरी
प्रियतम से मिलने की बेला
आई है।
कोयल ने तानी मीठी तान मेरे
प्राण व्याकुल हुए जाते हैं,
बैरन होने लगी नयनों से निंदिया
अब आँखें बहुत अलसाई है।
विशुद्ध भाव का प्रेम प्रिय का
मेरे ह्रदय में अब समाने लगा,
अंग अंग में उमंग है छाई आम्र
मंजरी संग मेरे बौराई हैं।
मेरे बासंती गीतों की लय में प्रियतम
आकर अब तुम रम जाओ,
अंतर्मन को कर मुखरित कर
सुरमई शाम कितना लजाई है।
धानी चूनर पर अलि का गुंजन
पीली पीली सरसों की सरसराहट,
ऋतुराज बसंत में वासंती कोपलों
का यौवन देख मन मस्ती छाई है ।।
