बंद खिड़की
बंद खिड़की
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तलबगार है ये बंद खिड़की
उस शख्स के दीदार की
जो वादा करके गया आने का
अब हद्द हो चुकी इंतज़ार की।
गुज़रती हैं जब भी हवाएं यहाँ से
दर्द की आहट उठ जाती है
चरमराती कराहती हैं बहुत
ये खिड़की बहुत चिल्लाती है।
जाम हो चुके कब्जे इसके
झुँझलाते किटकिटाते से
उन यादों के झरोखों से
तेरी कोई हूक सी उठ जाती है।
आजा की रंग फीके न हो जाएँ
खुलने को आज भी बेताब ये खिड़की
रोशनी भी गुज़रने नहीं देती
कैसी ज़िद पर अड़ी है ये खिड़की।
कब आकर खटखटाओगे
कब फिर सतरंगी सपने सजाओगे
आजाओ की आस में परेशान
तलबगार तेरी ये बंद खिड़की।