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Surendra kumar singh

Others

5.0  

Surendra kumar singh

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भागने का अंत

भागने का अंत

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भागने के अंत से पीछे मुड़ा तो

जंग के हर मायने बदले हुये थे,

फूल की गाड़ी लिये मुझ आदमी पर

तंत्र के हर वार ही खाली गये थे,

वक़्त का डर इसे या कुछ भी कहें

प्रेम धोखे में ही लिपटता ही गया था।

भागने के अंत से पीछे मुड़ा तो कह रहा हूँ

शस्त्र सारे तंत्र के विखरे पड़े हैं,

बारिशों का दूर तक साया नही है

वक़्त का उपहास या कुछ भी कहें

युद्ध का मैदान तो खाली पड़ा है।

हो रहे हैं युद्ध के अभ्यास फिर भी

आदमी ही आदमी से लड़ रहा है।

युद्ध का उद्घोष भी परमात्मा के नाम है

देखता हूँ एक विघटन की लकीरें हर जगह

देश और देशों की बातें मत करें

धर्म का तो नाम लेना छोड़ दें

आदमी हैं,आदमी की बात चाहे मत करें

आदमी की आत्मा बंटने लगी है।

वक़्त का संत्रास या इसे रूढ़ियों का नाम दें

युद्ध भी जज्बात में लिपटे हुए हैं।

भागने के अंत से पीछे मुड़ा तो कह रहा हूँ

एक दुनिया पर किसी का नाम लिखना छोड़ दें।

दागते हो तोप दुनिया पर किसी की आड़ में,

युद्ध पर जज्बात की परछाइयों से दूर भी

एक दुनिया है हमारे सामने है।

कोई जो काल की परछाइयों को ओढ़कर

ध्वंस के परिवेश का आंगन बदल दे,

आदमी में आदमी का दिल पिरो दो

भागने के अंत से पीछे मुड़ा तो कह रहा हूँ।

युद्ध हो तो दिल से हो

दिल से लड़ो,

काल के सीने में भौंको एक खंजर

वक़्त को अपनी दिशा में मोड़ लो।


भागने के अंत से पीछे मुड़ा तो कह रहा हूँ

युद्ध है तो युद्ध का उन्माद कैसा,

युद्ध मे जज्बात की परछाइयों से मत लड़ो।


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