बचपन का बसंत
बचपन का बसंत
ये बसंती पवन, ये महकती पवन, कुछ मचलती हुई गुदगुदाती पवन,
इस हवा ने छुआ तन महकने लगा, मन में यादें उठीं, दिल धड़कने लगा,
याद आती रहीं, मुस्कुराती रहीं, गीत भूले हुए गुनगुनाती रहीं…
खो गया मन वहीं पर फिसलने लगा, दिल पे ख़ुद का नियन्त्रण भी हटने लगा,
याद आते थे किस्से लड़कपन के तब, मस्त मिट्टी सने, घर बनाते थे जब,
दौड़ पड़ते थे सड़कों पे बिन बात के, कोकोकोला के ढक्कन उठाते थे हम,
वो कबड्डी, वो खो- खो, वो उड़ती पतंग, गुड्डे - गुड़िया, वो लट्टू, वो कंचे थे जब,
खेलते- खेलते रात होती थी तब, कान खिंचते थे घर पर पहुँचते थे हम,
पेड़ कोई भी हो तोड़ लाते थे फल, डाँट माली या अम्मा की खाते थे हम,
चाॅक लेकर दीवारों को रंग देते थे और ख़ुद को 'पिकासो' समझते थे हम,
बाल की चोटियाँ गूँथती जब बहिन, सिर हिलाते थे, थप्पड़ भी खाते थे हम,
बेर, अमिया औ कमरख के बिग फ़ैन थे, डांँट इसके लिए भी तो खाते थे हम,
मुँह फुलाकर कभी बैठ जाते थे जब, थोड़ी पुचकार से मान जाते थे हम,
कूदना, फाँदना, दौड़ना क्या कहें? हाथ, घुटनों पे दस घाव खाते थे हम,
बचपना खो गया, गुम गई वो खुशी, ऐसा लगता है कोई हिमाकत हुई…
क्यों बड़े हो गये और समझदार भी? घाव तन पर नहीं दिल पे लगते हैं अब,
दर्द होता था बचपन में, रोते थे तब, आज हँस कर सभी दर्द सहते हैं हम,
या खुदाया बहुत ग़म उठाये हैं अब, या तो बच्चा बना दे या मुक्ती दे अब !
ओ बसंती पवन! मेरी प्यारी बहिन! बन के आँधी ज़मी से उठा दे हमें,
दर्द कोई जहाँ तक न पहुँचे वहाँ, उस जगह पर बसेरा दिला दे हमें,
सब बसंती, बसंती, बसंती रहे, उम्र कोई भी हो, बस लड़कपन रहे!
