अस्पताल का कमरा
अस्पताल का कमरा
डूब रही हैं अब वो सांसें
जिनसे आती थी महक केवड़े सी
जो कानों में कभी रस घोला करती थी
बड़ी सुरीली होती थी वो बोलियाँ,
प्यारी, प्यारी मीठी मीठी
पर अब हर तरफ हैं तन्हाई बस तन्हाई
ख़्वाब टूट गए हैं, जो जागना नहीं चाहते
पड़ी हैं देह पलंग पर शक्तिहीन सी
ठहर जाती हैं आंखे पास पड़ी मेज़ पर
जहां पड़ी हैं बहुत सी किताबें,
बिखरी, बिखरी धूल खाती
वो किताबें जिनके बिना ज़िन्दगी थी अधूरी
अब पास होके भी मिल नहीं पातीं
बस मुझे हसरत से ताकती हैं
उनमें बसे पात्र रह रह के अहसास कराते हैं मुझे
यही लिखा था न तुमने, लो अब झेलो
अकेलापन सूखे ठूंठ की तरह
अब तुम कोशिश भी करोगी तो नहीं आयेगी कोपलें
इन उधड़े, टूटे रिश्तों में पहले सी हरीतिमा लिए
जो जोड़ती थीं तुम्हें मिट्टी से
वो उम्मीदें जिन्हें तुम रख लेती थीं सिरहाने
एक नई सुबह के स्वागत के लिये
और लिपटी रहतीं थी उमंगे तुम्हारे वजूद से
अब सांसों का पिटारा खाली हो चला हैं
मौत खेल रही हैं शह और मात का खेल
रूह बेक़रार है उतारने जिस्मानी चोला
सांसों के तार ज़िंदगी की सीढ़ियां चढ़ उतर रहे हैं
चेहरे धुंधले हो चले हैं, कानों में कुछ सरगोशियाँ हैं
मौत खड़ी है पहन काला लबादा
डूबती सांसें दर्द को आराम देना चाहती हैं
शायद मौत की उम्र इतनी ही थी
खाली कमरा बता रहा हैं आज लौट चला है
जीवन फिर जीवन की ओर
धुंधला हो चला हैं हर सांस के साथ
अस्पताल का कमरा
रुदन, बेबसी, विलाप की आवाज़े अब धीमी हो गई हैं।