अल्हड बचपन के वो दिन
अल्हड बचपन के वो दिन
आज भी याद आते हैं
अल्हड बचपन के वो दिन
जब एक रूपये की कटी पतंग को पकड़ने
नंगे पांव भागा करते थे दो मील तक
तपते सूरज की गर्मी से
झुलसे गाल, माथे से टपकता पसीना
पांवों में आड़े-तिरछे छाले
भूख प्यास की किसे चिंता
बस एक ही धुन होती सवार कि
कटी पतंग फंस जाये मेरी कंटीली डंडी में
अगर जब पतंग हाथ नहीं आती तो
करते सारे जतन उसे फाड़ने की
छीना-झपटी का भी दौर आता
अगर तू मेरी ना हुई तो
किसी और की भला कैसे हो सकती है कमबख्त
जिसके हाथ पतंग आ जाती
मानो कुरुक्षेत्र का मैदान जीत लिया
अनवरत संघर्ष, अथक परिश्रम
याद करके उन पलों को आज अहसास होता है
बिना संघर्ष किये जिंदगी में
कुछ भी तो हासिल नहीं होता
काश ! अल्हड़पन का वो दौर
लड़कपन के शरारत भरे दिन
एक बार फ़िर से लौट आते
बरसात में कागज़ की कश्ती लेकर ।