अच्छा - सा
अच्छा - सा
मेरे हाथ छटपटा रहे है,
कुछ अच्छा-सा लिखने को।
क्या लिखुँ ?
बढ़ते लोग, दु:ख रहे भोग,
बेकारी बनी शिकारी,
फैली भुखमरी, झगड़ा है दुखत्तरीI
फुटपाथ पर जी रहे लोग,
इमारतें है बड़ी - बड़ी,
आशियाँ नहीं सर छुपाने को I
बचा नहीं कुछ अच्छा-सा लिखने को!
मेरी ऑंखें फड़फड़ा रही है
कुछ अच्छा-सा देखने को!
क्या देखूँ ?
अबला बेचारी, किस्मत की मारीI
रिश्वत का यहाँ चलता कमान,
लुटे जो सबको, है फिर भी महानI
देखो यारो ये है कैसा जहान?
क्या देखें बुराई, क्या देखें अच्छाई ?
कुछ भी अंतर ना अब तो देता दिखाई
तरस रही ऑंखें कुछ अच्छा-सा देखने को
मेरे कान तरस रहे है
कुछ अच्छा-सा सुनने को
क्या सुनूँ ?
वही अपशब्द, अपयश
एक ने की दूसरे की चुगली
मोटी है वो, है थोड़ी-सी दुबली
कहाँ गई वो मिठास
जो लुभा लेती थी हृदय को?
कान भी हो गए आदी यही सुनने को
अब नहीं तरसेंगे अच्छा-सा सुनने को!
मेरा ‘जी’ करता है,
किसी पर विश्वास करने को I
किस पर करूँ ? कैसे करूँ ?
यहाँ तो शुभा है अपनों पर ही अपनों को,
अब तो अपने ही साये से डर लगता है I
फिर कैसे सच मान लूँ सपनो को ?
किसे मानूँ सच्चा-सा ?
अब तो सपना भी नहीं आता अच्छा-सा!
