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Randheer Rahbar

Others

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Randheer Rahbar

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अच्छा - सा

अच्छा - सा

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मेरे हाथ छटपटा रहे है,

कुछ अच्छा-सा लिखने को।

क्या लिखुँ ?

बढ़ते लोग, दु:ख रहे भोग,

बेकारी बनी शिकारी,

फैली भुखमरी, झगड़ा है दुखत्तरीI


फुटपाथ पर जी रहे लोग,

इमारतें है बड़ी - बड़ी,

आशियाँ नहीं सर छुपाने को I

बचा नहीं कुछ अच्छा-सा लिखने को!


मेरी ऑंखें फड़फड़ा रही है

कुछ अच्छा-सा देखने को!

क्या देखूँ ?

अबला बेचारी, किस्मत की मारीI

रिश्वत का यहाँ चलता कमान,

लुटे जो सबको, है फिर भी महानI

देखो यारो ये है कैसा जहान?


क्या देखें बुराई, क्या देखें अच्छाई ? 

कुछ भी अंतर ना अब तो देता दिखाई

तरस रही ऑंखें कुछ अच्छा-सा देखने को   


मेरे कान तरस रहे है

कुछ अच्छा-सा सुनने को

क्या सुनूँ ?

वही अपशब्द, अपयश

एक ने की दूसरे की चुगली

मोटी है वो, है थोड़ी-सी दुबली


कहाँ गई वो मिठास

जो लुभा लेती थी हृदय को?

कान भी हो गए आदी यही सुनने को

अब नहीं तरसेंगे अच्छा-सा सुनने को!


मेरा ‘जी’ करता है,

किसी पर विश्वास करने को I

किस पर करूँ ? कैसे करूँ ?


यहाँ तो शुभा है अपनों पर ही अपनों को,

अब तो अपने ही साये से डर लगता है I

फिर कैसे सच मान लूँ सपनो को ?

किसे मानूँ सच्चा-सा ?

अब तो सपना भी नहीं आता अच्छा-सा!


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