अचानक कुछ अजनबी से तुम
अचानक कुछ अजनबी से तुम
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रात के साये फिर गहराने लगे हैं
नींद है की सिसकिओं की लड़ी सी सुबकती जा रही है
रौशनी चाँद भी बेरौनक सा लगता है मुझे
करवटे हैं की खुद ही बदलती जा रहीं हैं
कहते थे परछाई हो मेरी
भरी धुप मैं फिर क्यों मिटती जा रही हैं
सिमटे से बैठे हैं हम आज अपने लिहाफ में
हाथ बढ़ाये भी तो क्या छूने के लिये
अजनबियत का एहसास जलाता बहुत है
तुम्हारी दोस्ती सच थी
या अब यूं अजनबी हो जाना
पहले दोस्ती मे लुटे अब अजनबियत में
अचानक कुछ अजनबी से तुम
