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Hritik Raushan

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Hritik Raushan

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आंगन

आंगन

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कहां गए वो आंगन....


घर के चारदीवारी से खुले

आसमान को निहारता था वो आंगन...

इतना बड़ा तो न था कि अट जाए

मन के कोनों में

पर था जैसे हवा होती है,

जितनी चाहिए भर लो सांसों में।

हमारे किलकारियों को अवसर देता

था गूंजने को पूरे आसमान में,

खुरदुरा एहसास उसका

था हमारे तलवों की मालिश सा।


कूटती थी धान, फटकती थी

सूप दादी और मम्मी 

तो गुनगुनाता था संग आंगन भी।

वो सिलती बुनती तो वह

रोशनी की लकीरें खींचता 

और बजता रहता घड़ी की

सुइयों सा तीनों पहर।


सजते थे मंडप बनते थे रिश्ते

था ऐसा अनोखा पवित्र जगह,

रोते थे सारे जहां बेटी की विदाई में,

तो ठिठोली भी होती थी वहां

दुल्हन की मुंह दिखाई में।

दादी नानी के किस्सों का भंडार था वो, 

पहले दीए का हक़दार भी वही तो था

आंगन जमीन का एक टुकड़ा न था

वह धूप

पहली बारिश

जेठ की शाम

और खुली सांस लेने का एक मौका था

था नहीं जायदाद वो।



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