आज जाने क्यों
आज जाने क्यों
आज फिर जाने क्यों
ढूंढने लगा खुद को तुममें,
पढ़ डाला पूरा इतिहास
तुममें खुद के होने का
तो समझ में आया
ये तो खुद में अविश्वास है
तुममे खुद को ढूंढने का,
अन्यथा हम अलग हो ही कैसे सकते हैं?
शायद हमारी याद
हकीकत में पूरी तरह नहीं बदली है
या हम खुद को बदलने का
एहसास नहीं कर पा रहे हैं
वजह तो स्पष्ट है
इतना दबाव है जड़ता का कि
कि हम खुद को बदलने से यूँ डर रहे हैं
जैसे हम पदच्युत हो रहे हैं।
सच में हमारे लिये हालात
ऐसे पहले तो कभी नहीं थे
चलो आज यकीन करते हैं
कि सुबह हो रही है,
और हम खुद को देख रहे हैं,
इस होती हुई सुबह में,
रक्तिम किरणों में,
सादगी के इंद्रधनुष की तरह।
इस आश्वस्तता के साथ भी
कि पदच्युत नहीं हो रहे हैं
पदभार ग्रहण कर रहे हैं
मनुष्य होने का।
