सविता
सविता
आज भी गाँव में मिट्टी के चूल्हे पर सुखी लकड़ियों को जलाकर खाना बनाने का प्रचलन है। यह छोटी सी कहानी उसी से जुड़ी हुई है।
सविता के पिता दूसरों के खेतों में मजदूरी किया करते थे। वो खेत वैसे सविता के पिता के बड़े साले साहब जी का था। सविता की माँ से शादी के बाद वो यहीं रह गये थे। सविता के पिता और उनके बड़े साले में सगे भाईयों सा लगाव था। खाने और रहने की दिक्कत नहीं थी। मगर सविता और उसके दो भाईयों को पढ़ाने जितना पैसा नहीं था। बहुत छोटी उम्र सविता और उसके दोनों भाई अपने पिता का खेतों में और माँ का घर में हाथ बंटाने लगे थे । कुछ तरह चौदह की उम्र रही होगी सविता की जब माँ के बड़े भाई ने अपने बेटे की शादी कर एक अच्छे घराने की बहु लेकर आये। सविता से कुछ एक दो साल बड़ी थी उसकी भाभी। मगर जल्द ही दोनों की दोस्ती हो गई। कुछ महीने बड़ी अच्छी तरह गुजरे और फिर सविता की शादी कर दी गई। अभी तक वो गृहस्थी को माँ और भाभी की नज़र से देखती आ रही थी।अब सविता खुद व्याहता थी, गृहणी थी।
विदा होकर सविता ससुराल आई। लेकिन, ससुराल की हालत कुछ खास नहीं थी । मिट्टी के दो कमरे थे और चार छोटे देवर जो दिनभर घूमते खेलते और आकर खाना मांगते थे। सविता की सास ज्यादा बुढ़ी नहीं थी क्योंकि, उनका भी बाल विवाह हुआ था। वो चूल्हे पर खाना बना लेती थीं और घर आँगन की साफ सफाई कर लेती थीं। सविता के ससुर के पास भी अपनी कोई जमीन नहीं थी उसके पिता की तरह। वो दिनभर मवेशी चराते थे। अब बाहर के सारे काम सविता ने संभालना सुरु किया। वो कुएँ से पानी लाती, नदी जाकर कपड़े धोती और देवर सब को नहलाती साथ ही जंगल से लकड़ियाँ जमाकर रस्सी से बाध सिर पर गाँव की बाकी औरतों के साथ ढोकर लाती।
अब सविता की यही दिनचर्या बन चुकी थी। उसका पति नदी से रेत ढोने वाली गाड़ी पर घूमता रहता था। सविता को पास की औरतों ने बताया वो जंगल से लकड़ियाँ इकट्ठा कर दूसरे गाँव में जाकर अच्छे घरों में बेचकर कुछ पैसा और कपड़ा या बर्तन उसके बदले लिया करेंगी। पहले तो सविता ने मना किया इस काम के लिए लेकिन, बाकियों को हँसी खुशी लकड़ियाँ बेचकर लौटते देख उसने भी जाने का मन बना लिया। और उनकी मंडली में वो शामिल हो गई। एक दिन पहले ही लकड़ियाँ बांध कर रख लेती थीं सभी घर के लिए अलग से जमा करने के बाद। और सुबह कुछ रास्ते के लिए बांध कर निकल जाति थीं भारी लकड़ियों की गठरियाँ लेकर । नंगे पाव, लचकती कमर, बहता पसीना, बिखरे बाल, आँखों तक घूँघट और सिर लकड़ियों का वजन। पथरीले कच्चे रास्तों पर भी सविता सबके साथ खुशी खुशी लकड़ियाँ बेच कर उसके बदले पुराने कपड़े या बर्तन तो कभी कभी कुछ पैसे पाकर जीवन में मगन थी।
अब तक सविता आस पास के गाँव और मुख्य सड़कों के किनारे बने पक्के के मकानों और दुकानों मे लकड़ियाँ बेचती आई थी। लेकिन आज वो दूसरे गाँव गई जो उसके ससुराल से काफी दूर था। उस का नाम उसे सुना हुआ लगा मगर याद नहीं आया कब और किससे सुना था। सविता बाकी औरतों के साथ लकड़ियाँ ले लो की आवाज़ लगाते हुए बढ़ती जा रही थी। तभी उसे लगा किसी ने उसका नाम पुकारा। उस पहचानी हुई आवाज़ सुनकर सविता का दिल थक्क सा रह गया, पीछे मुड़कर देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही वो मगर उसके कदम आगे बढ़ने से भी इंकार कर रहे थे। वो एक नज़र देखने को आतुर भी थी और अपनी स्थिति देख संकोच भी हो रहा था। वो आवाज़ लगातार उसे पुकार रही थी।
सविता ने मन को मजबूत किया और आँसुओं को रोकने का पुरजोर प्रयास कर पीछे मुड़ी। वो कोई और नहीं उसकी भाभी खड़ी थी अपने पक्के मकान की छत पर। ये वही भाभी थी उसके पिता के बड़े साले की बहु कहें या मामा की बहु कहें। जिसके साथ सविता के मन के तार जुड़े थे। जो बहुत कम दिनों में भी उसकी पक्की सखी बन गई थीं। सविता को रुकने को बोल उसकी भाभी नीचे आई। सविता संकोच कर रही थी यह सोचकर की उसकी भाभी के मायके वाले उसके बारे में क्या सोचेंगे। उसके कदम जैसे जमीन ने जकड़ लिए। भाभी मगर मानने वाली कहाँ थी। उसके सिर से भारी लकड़ियों का गठ्ठर उतार कर सड़क के किनारे रख दिया और सविता को बहों में भर लिया। सविता को अचानक ही अपनी दिन दशा का भान उमड़ पड़ा और वह भाभी से लिपटकर किसी बच्चे की तरह रो पड़ी। फिर भाभी के चुप कराने पर चुप हुई और उनके आग्रह करने पर उनके पक्के के मकान में गई। बाकी सविता के साथ की औरतों को भी साथ लाई और सबका अच्छे से सत्कार किया।
अपनी भाभी का घर और खाने पीने की सुविधाएँ और कपड़े जेवर देख सभी हैरान थीं। खेत और बाग बगीचे भी थे अगर कुछ नहीं था तो इतना सबकुछ होने का गुरुर। वो दयालु और हृदयवान थे। सविता के साथ बाकी सबकी लकड़ियाँ भी भाभी के पिता ने खरीद लिए और अच्छे दाम के साथ कपड़े भी दिये। पहले सविता ने मना किया मगर फिर भाभी की माता जी के जिद्द पर पैसे और कपड़े लेने के लिए राजी हो गई। भाभी ने बताया वो कुछ दिनों बाद चली जायेगी। मगर सविता से बोली जब भी इधर आना इसे अपना घर समझ कर जरूर आकर मेरे माता पिता का हाल समाचार लेना उनको अच्छा लगेगा।
शाम होने से पहले सविता अपने गाँव के लिए विदा हुई। वो भाभी के पास रुकना चाहती थी लेकिन, ससुराल वालों की इजाजत के बिना और यूँ उनको बिना बताये ठहरना उचित नहीं था। वो फिर आएगी का वादा करके भाभी और उनके परिवार से जी भर कर स्नेह पाकर,सत्कार पाकर दिल से निहाल होकर गई। आज वो हृदय से प्रसन्न है। उसके जीवन का यह अनमोल पल है। जहाँ लोग उसे घर के बाहर भी एक ग्लास पानी नहीं देते वहीं उसको इतना प्यार देने वाली भाभी है उनका परिवार है। आज की घटना उसके ससुराल और आस पास के गाँव में पहुँची और सबको पता लगा की वो एक बड़े जमींदार की सगी बेटी जैसी है। उसके लिए सबके विचार और मत तो बदलना ही था।
