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जीवन-संध्या

जीवन-संध्या

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तिवारी जी 35 वर्षों से केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाते थे। एक वर्ष पूर्व ही वे प्राधानाचार्य पद से सेवा-निवृत्त हुए थे। उनके दोनों पुत्र सरकारी कार्यालयों में उच्च पदों पर सुशोभित थे। दोनों पुत्र-वधुऐं अध्यापिकायें थी। उनकी पत्नी का देहान्त हो चुका था। सेवा- निवृत्त होने के बाद मानो उनका जीवन स्तम्भित-सा हो गया था। हालाँकि उनके परिवार के सभी सदस्य उनका सम्मान करते थे किन्तु वे सब अपने-अपने जीवन में व्यस्त थे। तिवारी जी को ऐसा लगता था जैसे वे पूरे संसार से कट कर अलग हो चुके थे। केवल उनका एकांत ही उनका साथ दे रहा था।


वे रोज़ सुबह उठ कर योगा एवं व्यायाम करते थे। उनके पोते-पोतियाँ स्कूल से वापस आ जाते तो कुछ समय उनके साथ व्यतीत करते। शाम को टहलने निकल जाते और अपने पुराने मित्रों से मिल आते। घर वापस आकर भोजन कर जल्दी सो जाते। पर रात को उन्हे नींद न आती थी। हर समय बस यही विचार मन में आता कि वे अपनी जीवन-संध्या व्यर्थ ही नष्ट कर रहे हैं। पर वे क्या करें उन्हें कुछ समझ न आता था।


एक दिन वे अपने एक मित्र के आग्रह पर उनके साथ पुस्तकालय चले गए। वहाँ उन्होने पण्डित नेहरू के जीवन पर लिखी एक पुस्तक पढ़ी। उसमें लिखी कुछ पंक्तियों ने उनके मन को छू लिया। वे कुछ यूँ थी-

"Woods are lovely dark and deep,

But I have promises to keep,

And miles to go, before I sleep."


तिवारी जी ने दृढ़- निश्चय कर लिया कि वे भी नेहरू जी की तरह अपने जीवन के अंतिम क्षण तक विश्राम नही करेंगे। अगले दिन वे एक ब्लेक-बोर्ड और कुछ चाॅक खरीद लाए। आस-पास के कुछ निर्धन बालकों को एकत्रित किया और उन्हें अपने घर ही में पढ़ाने लगे। यह देखकर उनकी बड़ी बहु मालती बोली, "पिताजी ऐसा क्यूँ कर रहें हैं? जीवन-भर काम किया है अब तो ज़रा विश्राम करें।"


इस पर उनकी छोटी बहु राधा ने कहा, "अजी क्या कहें? बस, बुढ़ापे की सनक है।"


तिवारी जी यह सुनकर मन-ही-मन मुस्काए ।


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