सुनहरी यादें
सुनहरी यादें
उम्मीदों के पंख लगाकर
स्वपन सजीले बुनते थे
या यों कहें कि कुल मिलाकर
कब पाँव धरा पर टिकते थे
तरह-तरह के करतब दिखाकर
मजबूत स्वयं को करते थे
उम्मीद को दिल में बसाकर
पल-पल खूब निखरते थे
याद आता है अपना वो बचपन
जब छोटी-छोटी बातों पे लड़ते थे
मस्ती भरी बेफिक्री की शाम में
संग दोस्तों के निकलते थे
दस पैसे की कुल्फी की खातिर
दादी से फरियाद लगाते थे
रूठा-मनाई, कट्टी-बट्टी
अक्सर रोजाना सी होती थी
फिर भी अलग कभी ना
हम दोस्तों की टोली होती थी
यों तो बचपन में आम घर में
टोकरा भरकर आते थे
पर मजा तो उन आमों में था
जिन्हें चोरी से तोड़कर खाते थे
भुलाए नहीं भूलता वो स्कूल
जहाँ सभी हम पढ़ते थे
अपने लाए टाटों पर बैठकर
पेड़ तले तख्ती लिखते थे
अब तो बीत गया वो बचपन
जहाँ मस्ती मिलकर करते थे