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त्याग

त्याग

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     मंझली बहुरिया के गृहप्रवेश को एक महीना हो गया । इतने समय मे बड़की बहुरिया का पूरा ध्यान रह रह कर हार पर ही जाता था , जो मंझली ने पहने रखा था । वह हार बड़की का ही था , उसे अपनी शादी में मायके से मिला था । ससुराल में गरीबी थी इसलिये उसने अपना हार खुद आगे होकर ससुरजी के हाथ मे रख दिया था की आप मंझली को शादी में चढ़ा दो , पर अब मंझली के गले मे दो दो हार देखकर उसे, अपना हार वापस चाहिये था । उसने समय देखकर मंझली को संकेत भी दे दिया था ,की वह हार उसका है और उसे वापस दे दे । पर मंझली के कान पर जूं तक न रेंगी । बड़की मन ही मन कुढ़ती रहती, और जब वो हार की बात निकालती , मंझली बात पलट देती या उठकर चली जाती ।   मंझली थी बड़ी चालक , वह सासूमाँ के पास जाके बोली "अम्मा ई लेयो अपना हार, जो आप हमें चढ़ाये रही, हमरे पास अपना है, अब आप इसे छुटकी बहुरिया आएगी उसे चढ़ा देना"। अम्मा ने नहले पे दहला मरते हुए कहा " ई बड़की का है उसे दे दे , छुटकी आएगी तब तू त्याग कर देना" ।


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