ग़ज़ल
ग़ज़ल


मुझे ग़म को छुपाने का तजुर्बा है।
मोहब्बत हार जाने का तजुर्बा है।।
हवाओं की परख तासीर लेता हूँ।
बुझे दीपक जगाने का तजुर्बा है।।
करूँ आदर सदा अपने बड़ों का मैं।
मुझे पलकें बिछाने का तजुर्बा है।।
करेगा मौन भी घायल कयामत तक।
मुझे नश्तर चुभाने का तजुर्बा है।।
रहेगा राह में रोड़ा न कोई भी।
मुझे काँटे हटाने का तजुर्बा है।।
नशे में चूर होकर गिर नहीं सकता।
मुझे पीने पिलाने का तजुर्बा है।।
जुबाँ पर राज़ कोई आ नहीं सकता।
मुझे बातें पचाने का तजुर्बा है।।
सभी से मिल गले लगता सदा कोविद।
मुझे दुश्मन घटाने का तजुर्बा है।।