माँ
माँ
अपनी आँखों से
काजल उतार कर
मेरे माथे पर
टिका लगाती
मेरे होंठों पर लगे दूध को
अपने आँचल से पोंछती
होठों से प्यार की चुम्बन
देती माथे पर
शुभ आशीष की तरह
फिर भी माँ के मन मे
नजर ना लग जाए कहीं
भय समाय रहता
भले ही माँ भूखी हो
मुझे आई तृप्ति की डकार से
माँ संतुष्ट हो जाती
आईने मे
संवारने लगी हूँ खुद को
क्योकि मै बड़ी जो हो गई
पिया के घर
माँ की दी हुई पेटी
जब खोलकर देखती हूँ
उसमे रखे मेरे बचपन के अरमान
जिसे संजो के रखे थे मैने गुड्डे-गुडिया
कनेर के पांचे और खाना बनाने के खिलौने
इन्हें पाकर मन संतुष्ट
लेकिन आँखे नम
आज माँ नहीं है
इस दुनिया मे
अपनी बेटी के लिए
आज वही दोहरा रही हूँ
जो सीखा-संभाला था
अपनी माँ से मैने कभी