कमबख्त़ वो
कमबख्त़ वो
आजकल किताबों में भी वो नज़र आया करती है,
कलम भी मेरी उसी का नाम लिख जाया करती है।
और बैठ जाती है जिस दिन बगल में वो मेरे,
हाय, मेरी तो साँसें ही अटक जाया करती है।
रिंगटोन भी उसकी मुझको बहुत भाया करती है,
मेरी मोबाईल के स्क्रीन पर भी वही छाया करती है।
और अपने हाथों से छू लेती है हाथ जिस दिन मेरे,
हाय वो हाथ देखते-देखते मेरी रात बीत जाया करती है।
कि आँखों में बड़ी गहराई है उसके,
हर अदा मानो अंगड़ाई है उसके।
बाते करते-करते कभी होठों को समीप ले आया करती है,
कमबख्त़ बिना पिये मुझे चढ़ सी जाया करती है।
कभी शोख चंचल चतुर चपला लगती है,
कभी सीधी-सादी भोली अबला लगती है।
और केन्टिन में पी लेती है कभी कॉफी मेरे साथ,
कमीने दोस्तों पर मेरे बिजली गिर जाया करती है।
वो सुंदर सलोनी प्यारी सी मूरत है,
मानो उसके रुप में स्वयं कुदरत है।
बाईक पर जब कभी वो सिमट जाया करती है,
कमबख्त़ आँखे मेरी रास्ता भूल जाया करती है।
पहन कर आती है जिस दिन स्कर्ट वो,
पूरे कॉलेज में अकेले कहर ढाया करती है।
सरस्वती पूजा के दिन जब लिपटकर साड़ी में आया करती है,
हाय, मुझको तो उस दिन उसमें ही देवी दिख जाया करती है।