कविता
कविता
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उठती है उँगली जो, अपने वतन पर
एसी उँगली को झट, तोड़ देना चाहिऐ!
मिलती है हवा गर, वतन के गद्दारोंं से
एेसी हवाओं का रूख़, मोड़ देना चाहिऐ
सूरत न दिखे जिस, दरपण में अपनी
ऐसे दरपण को तो, फोड़ देना चाहिऐ
नहीं कर सकते जो, सलाम तिरंगे को तो
रहना इस देश में, छोड़ देना चाहिऐ