कविता
कविता
1 min
13.6K
उठती है उँगली जो, अपने वतन पर
एसी उँगली को झट, तोड़ देना चाहिऐ!
मिलती है हवा गर, वतन के गद्दारोंं से
एेसी हवाओं का रूख़, मोड़ देना चाहिऐ
सूरत न दिखे जिस, दरपण में अपनी
ऐसे दरपण को तो, फोड़ देना चाहिऐ
नहीं कर सकते जो, सलाम तिरंगे को तो
रहना इस देश में, छोड़ देना चाहिऐ
