एक रोज़
एक रोज़
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एक रोज़ अपने बारजे में
कुछ पौधे लगाए थे मैंने
कुछ रोज़ पहले उन पर कलियाँ मुस्कुराईं थींं
फिर झूमते खिलखिलाते फूल खिले
और मेरे तन्हा बारजे में
बहार आई थी ।
आज देखती हूँ इन्हें ,
बेहद उदास नज़र आते हैं ,
जिंदगी से खफ़ा हैं या शायद मुझसे
बेहद नाराज़ नज़र आते हैं
बेरंगत -बेनूर नज़र आते हैं ।
इन फूलों के भी कुछ,
ख़्वाब होते होंगे शायद ....
अलबत्ता डाली पर लटके हुए ही
सूख जाना किसको भायेगा भला....