एक रूह अजनबी
एक रूह अजनबी
एक रूह अजनबी शमशान में
भटकती रही रात भर
कभी कबर पर कभी उस कबर पर
रोती रही रात भर
कहीं से अंदर से आवाज़ नहीं आयी
कितनी बार उसने दास्ताँ सुनाई
फिर भी किसी की रूह ना जवाबी
भला क्या थी उसमें ख़राबी
सुनाऊ उसके जीवन की कहानी
कहलाती थी वो हुस्न की रानी
कितने दिलों को उसने तोड़ा
कितनों तो बीन पानी निचोड़ा
कइयों ने जीतेजी प्राण गवाएं
कुछ अपना दर्द दिल में छुपाये
कुछ जुबां पर अंकुश न लगाये
कुछ जान लेने पर उतर आये
फिर भी उसे फर्क नहीं पड़ता
कोई रोता, कोई मर जाता
उसके द्वार फिर आया न कोई
ढली उम्र, ढल गयी जवानी
कोसते अपने अहंकार को
सच्चे- झूठे प्यार को
हर शख्स याद आने लगा
ख़्वाब में चेहरा सताने लगा
रातों की नींद उड़ गयी
दिन का चैन खोने लगा
पानी न पूछता उसे कोई
अब वह खूब पछताई
दोष कर्मोसहित जान गंवाई
ढलते जीवन के बाद भी पछताई
अब भी रूह भटकी रहती है
देखो कौन से युग में मोक्ष पाती है