आख़िर क्यूँ
आख़िर क्यूँ
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ताजमहल सी सुंदर
गुणवंती सुशील
पवित्र संस्कारित
समझदार बड़ी ज्ञानी
खुद के पैरों पर खड़ी
स्वावलंबी मनचली
स्वतंत्र हो सृजन स्वामीनी
धरती का शृंगार
सुगंधित फूल सी
कोमल अंगभंगिमा
सहज लाक्षणिक अदा
की मालकिन
सरल सुभाव संचारित
तो कभी वज्र सी
कठोर या धारदार
कटारी सी तेज
अपने पे आओ तो चंडी
काली रुप दुर्गा सी दीसो
दम से तुम्हारे संसार
चले बेटी बहू माँ
हर रुप में सजे
दुनिया की हर शैय
तुमसे उजागर
एे नारी तू है सब पर
भारी
फिरभी
क्यूँ आये दिन अखबार
तुम्हारे हनन की
सुर्खियों से सजे