ज़िम्मेदारियाँ

ज़िम्मेदारियाँ

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ए छोटू,"ये आठ कप चाय 458 न. की दूकान पर दे कर आ" कहते हुए चाय की दूकान के मालिक ने एक 8-10 साल के लड़के को चाय की ट्रे पकड़ा दी, और जल्दी आइयो और भी 4-5 ऑडर देकर आने हैं" उसे हिदायत दी |


मैं वहीं चाय पी रही थी | मार्किट में शॉपिंग के लिए गयी थी | वो बच्चा इतना मासूम था की उसके ऊपर तरस आ रहा था | ट्रे छोटी थी और चाय के कप भरे हुए थे | आस-पास भीड़ भी बहुत थी, बच्चा छोटा था फिर भी वो बैलेंस बनाने की कोशिश कर रहा था |  भीड़ के बीच से निकलने की कोशिश कर रहा था | तभी कुछ चाय छलक कर उसके हाथ पर गिर गयी | उसने ट्रे वापिस चाय वाले के काउंटर पर रखी और अपने हाथ पर फूंख मारते हुए जलन कि वजह से रोने लगा | उबलती हुई चाय थी, भीषण गर्मी पड़ रही थी| मैं उस बच्चे की पीड़ा समझ सकती थी क्यूंकि 2-3 दिन पहले उबलते हुए दूध से मेरा भी हाथ जला था| मेरे पर्स में जले पर लगाने वाली ट्यूब थी| मैंने उसका हाथ धुलवा कर जल्दी से जले हुए स्थान पर दवाई लगा दी | मैंने उससे उसका नाम पूछा तो उसने अपना नाम 'विकास' बताया और कहा "यहाँ तो सब मुझे छोटू कह कर बुलाते हैं"| इतनी देर तक उसका मालिक उसपर चिल्लाता रहा | उसे उस बच्चे से कोई हमदर्दी नहीं थी उसने उसके भाई को फोन लगाया और उससे गुस्से में बोला "लेकर जा अपने निठल्ले भाई को यहाँ से, मुझे नहीं लगाना इसे, काम करना तो कुछ आता नहीं है, नुक्सान कर दिया सो अलग | 


अब मुझसे चुप नहीं रहा गया मैंने उसे डांटते हुए कहा "एक तो आप इतने छोटे बच्चे से काम करवा रहे हो, ऊपर से उसका हाथ जल गया तो हमदर्दी दिखाने की जगह आप उस पर चिल्ला रहे हो"| 


तभी उसका भाई वहाँ आ गया| वह मुझसे बोला "मैडम आप बीच में मत पड़ो, मालिक साहब ने तो तरस खा कर इसे नौकरी पर लगा लिया था | यह मेरे ही गाँव का है | इसके पिता कि खेत में किसी ज़हरीले कीड़े के काटने से मृत्यु हो गई थी | घर में इसके चार छोटे भाई-बहन हैं, इसलिए इसकी माँ घर से बाहर जा कर काम नहीं कर सकती | घर में ही छोटा- मोटा काम कर लेती है, पर उससे घर का गुज़ारा होना मुश्किल है, इसलिए इसे मेरे साथ शहर भेज दिया, ताकि दो पैसे कमा कर अपने घर वालों कि सहायता कर सके" | 


अब चाय की दूकान के मालिक को भी मुझ पर चिल्लाने का मौका मिल गया था| पूरे तांव में बोला "मैडम अब आप कहोगी, ये तो गैर क़ानूनी है| इसकी तो पढ़ने की उम्र है, चलो मैं आपकी बात मानता हूँ कि सरकार इसकी पढ़ाई-लिखाई का खर्चा तो उठा लेगी, पर कानून इसके भूखे भाई-बहनों का पेट तो नहीं भर देगा | ये कानून-वानून मुझे मत सिखाओ" | मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि कसूरवार किसको ठहराऊँ, विकास के परिवार को, उसके मालिक को या उसकी किस्मत को| मैंने सोचा "पता नहीं, ये गरीब लोग इतने बच्चे क्यों करते हैं | अगर अभी विकास का सिर्फ एक भाई या बहन होती तो, उसकी माँ आराम से अपने घर का खर्च चला लेती | खैर अब सोचने से क्या होगा | मैंने विकास का हाथ अपने हाथ में लेकर उसे ट्यूब और कुछ पैसे देते हुए, उसे बड़ी सहानुभूति और इज़्ज़त की नज़र से देखते हुए कहा "छोटे तू तो अपने घर का बड़ा है रे"|


मैं मन में ढ़ेरों सवाल लिए चल दी वहाँ से, की हमारे देश में इतनी गरीबी क्यों है? क्यूँ गरीबों और अमीरों में इतना फर्क है? क्यूँ मैं इस बच्चे ले लिए कुछ नहीं कर सकती? फिर मैंने सोचा कर तो सकती हूँ, मैं वापिस वहाँ गयी और विकास से उसके घर का पता लिया| तब से, मैं हर महीने उसके घर जितने बन पड़ें उतने रूपए भेजने लगी | मैंने सोचा देश का हर अमीर अपनी मर्ज़ी से देश के एक-दो मजबूर परिवारों की मदद करने लगे, तो कम से कम वो भी थोड़ी अच्छी ज़िन्दगी जी सकेंगे |


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