वो भिखारी
वो भिखारी
आज रह रह कर बचपन की पुरानी यादें आ रही थी, वो हमार पुराना झोपड़ी नुमा मकान जहाँ बचपन की शुरुआत हुई गांव से आने पर, गांव से मुम्बई आयी तब मैं सिर्फ अठारह महीने की गुड़िया थी, वक्त के साथ साथ उस घर में आठ वर्ष बिताए थे हमने,
उस घर से जब भी सब्जी लेने या किसी काम से बाहर जाना होता तो याद मुझे आ जाता है वो शख्स वो एक भिखारी था,
वो भिखारी जब भी उस रास्ते से गुजरो हर किसी को पकड़ लेता जब तक उस को पैसे ना देते जाने ही ना देता, हर आने जिसने वाले से सुबह से लेकर रात तक पैसे जमा करता कोई पांच पैसे कोई दस पैसे तो कोई चवन्नी देता तब ही आगे जाने देता,
उसकी सूरत आज भी उस मोड़ पर जाओ तो स्मरण हो आती फटी कमीज मैली सी और निकर और सर पर मोटा सा रोबड़ा बना हुआ, उसको देखकर हर बच्चा डर जाता,
मुझे भी उस रास्ते पर जाने से डर लगता इसलिए अपने ताऊजी या किसी नौकर को बोलती उस मोड़ से आगे छोड़ आये,
वो भिखारी जाने कितने साल लोगों से पैसे मांगता रहा, फिर हम ने उस रास्ते से दूर अपना घर बदल लिया लेकिन कभी कभार जब वहां जाना होता तो वो भिखारी दिखाई देता,
फिर एक रोज उसकी मौत की खबर मिली उसके पास जो अकेला रहता था हज़ारों रुपये जमा थे जो। उसने मारने से पूर्व पास के गुरद्वारे को दान दे दिए और अंतिम दिनों में उनकी देखभाल भी गुरद्वारे वालों ने की,
जिसने कितने सालो से पैसे जोड़ जोड़ कर उसको क्या मिला क्या वो पैसा साथ गया, पैसा तो यही रह गया पर लोगों की बद्दुआएं उसको मिल गयी होंगी जबरदस्ती हर किसी को रोक कर पैसे जोड़ता, खाना मांग कर खा लेता था ।