Pawanesh Thakurathi

Others

4.1  

Pawanesh Thakurathi

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वह शाम

वह शाम

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नैनीताल की झील के किनारे खड़ा वह झील की मछलियों को ही तो देख रहा था। मछलियों को ही देख रहा था या कुछ और कर रहा था। हाँ सचमुच मछलियों को ही देख रहा था। बीच- बीच में कभी- कभार उसका ध्यान सड़क पर दौड़ती छुटपुट गाड़ियों पर भी चला जाता था।       

ओड़ाती सावन का महीना था। आसमान में काले - काले बादल छाये हुए थे। काली हैट पहने हुए वह आदमी बड़ी पैनी निगाहों से ताल की गहराई को तलाशता जा रहा था। अचानक उसके कान में एक आवाज़ आई- एक्सक्यूज मी ! वह चौक पड़ा ! जैसे ही उसने नजर घुमाई सामने एक खूबसूरत लड़की को खड़ा पाया। उसने प्रत्युत्तर दिया- जी ! लड़की ने पूछा- "क्या आप ही डॉ. मेहता हैं ?"

हैट वाले युवक ने लड़की को पहचानकर भी अनजान बनते हुए जबाब दिया- "जी, हाँ मैं ही हूँ।"

लड़की के चेहरे पर मुस्कान तैर गई- "मैं डॉ. निशा।"

युवक ने कहा- "ओह सॉरी! आप हैं डॉ. निशा ! आपको तो मैं पहचान ही नहीं पाया। दो ही सालों में काफी बदलाव आ गया है।"

डॉ. निशा- "कोई बात नहीं। अब डॉ. बन गये हैं जनाब। अब कहाँ पहचानेंगे। चलिए कहीं बैठते हैं।"

 

डॉ मेहता निशा के आग्रह को टाल नहीं पाये। दोनों मल्लीताल की तरफ चलने लगे। शाम के छह बजे थे। रिमझिम-रिमझिम बारिश की बूंदें पड़ने लगी थीं। डॉ. मेहता खाली हाथ थे। डॉ. निशा ने अपने लाल पर्स में से छतरी निकाली और डॉ. मेहता को ओड़ाती हुई बोली- "और सुनाइये मेहता जी ! क्या हालचाल हैं आपके ?"

डॉ. मेहता सकुचाते हुए बोले- "आप से क्या छिपा है मैडम ! आप तो जानती ही हैं। सरकार ने हमको बाहर का रास्ता दिखा दिया है। ये सरकार भी ना किसी की नहीं होती। जब मर्जी हुई रख लिया। जब मर्जी हुई बाहर निकाल दिया।"

डॉ निशा ने छतरी को संभालते हुए कहा- "हाँ, ऐसा ही है मेहताजी। पिछले आठ-दस सालों में जो अध्यापक डिग्री कॉलेज में रखे गये हैं, वो भी प्रारंभ में संविदा के आधार पर ही 6 माह के लिए चुने गये थे, लेकिन वो सब अभी तक जॉब कर रहे हैं और हमको 6 माह में ही निकाल दिया। हमारे साथ ही अन्याय क्यों ?"

डॉ.मेहता ने बारिश की बूंदों को अपनी कमीज़ से हटाते हुए कहा- "हाँ निशा जी। इसीलिए तो हमने देहरादून जाकर आंदोलन करने का निर्णय लिया। हमारे कई साथी वहाँ नहीं आये, बावजूद इसके हमने आंदोलन जारी रखा। उसका परिणाम यह हुआ कि हमें शिक्षा मंत्री द्वारा सकारात्मक आश्वासन दिये गये हैं।"

डॉ. निशा- सिर्फ आश्वासन ! डॉ मेहता- "हाँ, अभी तो केवल आश्वासन मिला है उम्मीद है जल्द ही कोई ठोस निर्णय लिया जायेगा।"

डॉ. निशा- "हाँ , उम्मीदों पर ही दुनिया कायम है।"

डॉ.मेहता ने भी हामी भरी- "क्या करें। हमारी तो जिंदगी ही उम्मीद बन गई है। पांच साल पीएच. डी. में लगाये। पीएच. डी. जो क्या की, गुलामी की प्रोफेसरों की।"

डॉ. निशा ने मेहता की बात का समर्थन करते हुए कहा- "हाँ , ऐसा ही है मेहता जी। मेरे गाइड भी ऐसे ही थे। प्रोजेक्ट का काम देखने के लिए शाम को घर पर बुलाते थे और आधे घंटे तक मुझे ऊपर से नीचे तक घूरते रहते थे। एक दिन तो हद ही कर दी। मुझे रात को आठ बजे कमरे में बुलाने लगे। मैंने साफ मना कर दिया। दूसरे दिन नाराज़ हो गये। बड़ी मुश्किल से मनाया।"

डॉ. मेहता भावविभोर हो उठे- "ऐसे प्रोफेसरों के कारण ही तो उच्चशिक्षा की दुर्गति हो रही है। ऐसा नहीं है कि अच्छे प्रोफेसर नहीं हैं, लेकिन अच्छे गाइड भी नसीब वालों को ही मिलते हैं।"

डॉ. निशा- "हाँ सही कहा आपने। ऐसे खानाखराब प्रोफसरों के कारण ही तो उच्च शिक्षा की दुर्गति हो रही है।"

            

डॉ. निशा और डॉ मेहता दोनों कुमाऊं विश्वविद्यालय के हरमिटेज भवन की तरफ चले जा रहे थे। दोनों विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक सेमीनार में भाग के लिए यहाँ आये थे। कुमाऊं विश्वविद्यालय जिसकी अकादमिक गतिविधियों में पिछले कुछ वर्षों में तेजी से इज़ाफा हुआ है।

कुछ देर चुप्पी छाने के बाद डॉ. मेहता ने चुप्पी को तोड़ते हुए कहा- "सेमीनार के बहाने ही सही, चलो आज आपसे मुलाकात तो हुई। सुनने में आया है कि जब से नये कुलपति ने कार्यभार ग्रहण किया है, तब से विश्वविद्यालय में कई नये विभागों की स्थापना हुई है।"

"हाँ, अब इन नये विभागों में भी पद सृजित होने की संभावना है। आपका क्या इरादा है ? एक पद यहाँ भी खाली है!"- ऐसा कहते हुए डॉ. निशा ने कनखियों से डॉ. मेहता की तरफ देखा।

           

डॉ. मेहता बोले कुछ नहीं बस मुस्कुरा दिये। अचानक बिजली चमकी और बादलों ने जोर की गर्जन की। डॉ. निशा ने डरकर डॉ. मेहता का हाथ थाम लिया। डॉ. मेहता मन ही मन बोले-"चलो, अच्छा हुआ, मछली फंस ही गई"



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