उफ़ ये छिपकलीयाँ

उफ़ ये छिपकलीयाँ

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मैडम छिपकली,

बचपन में मैं तुमसे बिल्कुल नहीं डरती थी। पहले के समय में खुले-खुले घर होते थे। तुम मेरे आस-पास ही दीवारों पर मंडराती रहती थी और मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था। मैं उस समय 12-13 साल की होंगी बाज़ारों में एक छिपकली का खिलौना आता था। मैं मम्मी-पापा से ज़िद कर के वो खिलौना छिपकली ले आई और जब भी मेरा भाई पूरी तल्लीनता से अपना काम कर रहा होता था, मैं दूर से बैठे-बैठे ही उसके ऊपर वो खिलौना छिपकली फेंक देती थी और ज़ोर ज़ोर से बोलने लगती थी, तेरे ऊपर छिपकली है। वो एक दम से घबरा जाता था और जल्दी से उस छिपकली को दूसरी तरफ फेंक देता था। वो इतना इसलिए डर जाता था क्योंकि जिस कुर्सी पर वो बैठता था उस के साथ वाली दीवार के ऊपर ज़्यादातर छिपकली घूमती रहती थी, इसलिए उसे लगता था वो छिपकली उसके ऊपर गिर गई जिस वजह से वो बुरी तरह डर जाता था और मुझे उसका मज़ाक बनाने का मौका मिल जाता था और मैं बहुत देर तक हँसती रहती थी।

आज भी, वो बात सोच कर मेरे चेहरे पर मुस्कान आ जाती है पर मैं कहाँ जानती थी, बचपन की ये मस्ती किसी दिन मेरे मन में हमेशा के लिए तुम्हारा खौफ बिठा देगी । कुछ साल पहले की बात है, मेरे कमरे में तुम्हारी किसी पूर्वज का बच्चा आ गया था। मुझे उसके बारे में पता नहीं था। ग़लती से मेरी चप्पल उस बच्चे पर पड़ गयी और वो मर गया। मुझे अफ़सोस हुआ था क्योंकि मैंने जानबूझ कर तो उसे मारा नहीं था। कुछ दिन बाद मैं अपनी मैड के साथ रसोई में थी। तभी हमने रसोई की खिड़की पर एक छिपकली देखी, शायद वो उसी बच्चे की माँ थी। वो हमें घूर रही थी, मेरी मैड उसे भागने की कोशिश करने लगी । खिड़की हमसे 2 फुट के करीब दूर थी। वो छिपकली इतनी दूर से अचानक से मैड के ऊपर कूद गयी। मैड ने उसे ज़ोर से झटका तो वो मेरे ऊपर आ गई। मैं बहुत ज़ोर से चिल्लाई और उसे दूसरी तरफ फेंका। वो छिपकली अलमारी के नीचे घुस गयी। मैंने उसे ढूँढवाने की बहुत कोशिश की पर फिर वो मुझे कभी नहीं मिली। उसने मुझे कोई नुक्सान तो नहीं पहुँचाया पर पूरी ज़िन्दगी के लिए मेरे मन में छिपकली के नाम का डर बिठा कर अपना बदला ले लिया था।

आज भी मुझे कहीं जाना हो और लॉबी की छत पर छिपकली हो तो मैं जल्दी से भाग कर बाहर जाती हूँ क्योंकि मुझे लगता है, वो मेरे ऊपर ही न गिर जाये। अगर किसी दिन ग़लती से कोई छिपकली मेरे कमरे में घुस जाती है तो मैं डर के मारे चिल्लाने लगती हूँ। पतिदेव को या सर्वेंट को उसे भगाने के लिए बोलती हूँ। जब तक वो कमरे से बाहर नहीं निकलती मेरा तो चैन ही खो जाता है। चाहे वो ज़िंदा बाहर निकले या मुर्दा मेरी सांस में तो तभी सांस आती है, जब पता चलता है वो निकल गयी। तुम्हारी वजह से मुझे अब बरसात का मौसम भी कम पसंद आता है क्योंकि हर जगह तुम्हारी भरमार होती है। हालांकि मच्छरों को खाने में तुम्हारा बहुत बड़ा हाथ होता है पर ज़मीन पर, दीवारों पर, छत पर तुम्हें देखकर मेरी तो जान ही अटक जाती है। कभी तुम अचानक से पौधों के पीछे से निकल आती हो, ऐसा लगने लगता है जैसे तुम मुझे हार्ट अटैक पड़वा कर ही मानोगी।

मुझे सर्दियाँ अब इसलिए पसंद आने लगी हैं, क्योंकि तुम्हें चुपचाप ट्यूब लाइट के पीछे बैठे हुए देख कर मेरे मन को बहुत शान्ति मिलती है। 


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