तुम्हें अब भी चॉकलेट पसन्द है?

तुम्हें अब भी चॉकलेट पसन्द है?

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बहुत देर से ही सही पर नींद तो आ गई थी लेकिन सपनों में भी चॉकलेट की तलाश में न जाने किन-किन दुकानों पर भटकती रही। तब जाकर एक दुकान पर वही चॉकलेट मिली जो फूफाजी ने दिलाई थी। दुकानदार से खुशी-खुशी चॉकलेट ली और दाम पूछकर जैसे ही बस्ते में हाथ डाला, मैं सन्न रह गई। बस्ते में पैसे नहीं थे। " कहाँ गए, यहीं तो रखे थे मैंने!", मैं घबरा गई।

" क्या हुआ? पैसे नहीं हैं...लाओ चॉकलेट वापिस करो। जब पैसे हो तब ले जाना।", उसने बहुत रूखी आवाज में कहा।

दुकानदार की बात सुनकर मैं शर्मिंदा हो गई और रुआंसी आवाज में उससे कहने लगी," नहीं, नहीं ...मेरे पास हैं, रुकिए दो मिनिट मुझे ढूंढने दीजिये।"

मैं पैसे ढूंढ रही थी लेकिन मुझे बस्ते में कहीं भी वे पैसे नहीं मिल रहे थे। झुंझला कर मैंने बस्ते से सारी कॉपी - किताबें एक झटके में पलट दी मगर यह क्या.... उस झटके के साथ मैं चारपाई से नीचे आ गिरी थी। एक पल तो मुझे कुछ समझ नहीं आया फिर पता चला कि वह तो सपना था।

फिर भी पहले बस्ते में देखकर तसल्ली की कि पैसे सही- सलामत हैं या नहीं उसके बाद ही दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होने गई। टिफिन लेकर पड़ोस में रहने वाली अपनी सहेली के साथ स्कूल के लिए चल दी। रास्ते में बहुत बार मन हुआ कि उसे इस राज का हमराज बना कर मदद मांग लूं लेकिन यही डर सामने आ जाता था कि कहीं यह मम्मी-पापा को हमारी लड़ाई होने पर यह बात बता न दे क्योकि खेल के चक्कर में हम लोगों की अक्सर ही लड़ाई हो जाती थी तब हम एक दूसरे के मम्मी - पापा के सामने सारा कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देते थे।

अभी तीन दिन पहले ही तो मैंने फरहा के पापा को बताया था कि उसने अग्रवाल अंकल के घर से गुलाब का बड़ा फूल तोड़ा था मधु मैडम को देने के लिए और गणित की क्लास में होमवर्क पूरा नहीं कर पाने की वजह से उसे क्लास से बाहर खड़े रहने की सजा भी मिली थी।

यह बात पता चलने पर उसकी मम्मी ने उसे धाराप्रवाह लैक्चर दिया था कि ट्यूशन भी भेजते हैं फिर भी होमवर्क नहीं किया। हमारे संस्कार चोरी के हैं क्या?  

मैं तो अपना काम करके घर आ गई थी लेकिन उसके आँगन की और मेरे आँगन की दीवार एक ही थी ,इस कारण उसके आँगन की आवाज़ें हमारे आँगन में भी साफ सुनाई देती थी।

बहुत देर तक चलने वाले प्रवचनों का अंत छुटपुट आतिशबाजी जैसी आवाजों के साथ हुआ। फरहा के कुछ देर तक रोने की आवाज भी आई उसके बाद सब शांत हो गया। उसी दिन शाम को खेल के मैदान में हमारी " अट्टा बट्टा सौ साल की कुट्टा " हो गई थी। अगले दिन हम दोनों स्कूल भी अलग- अलग गए थे। दोपहर को छुट्टी के समय जब घर लौटते हुए हम दोनों एक - दूसरे से दूर चल रहे थे तब रेलवे लाइन पार करते हुए एक कुत्ता फरहा के पीछे पड़ गया था। फरहा को कुत्तों से डर लगता था। अंजलि ने मुझसे कहा, " अब मजा आएगा, देख फरहा को, कैसे बच कर तेज भाग रही है।"

मुझे उसकी बात सुनकर गुस्सा आया लेकिन मेरी और फरहा की तो कट्टी थी न तो मैं क्यों उसकी मदद करती। फिर भी कनखियों से मैं फरहा को बीच- बीच में देख लेती थी। रेलवे लाइन के नीचे की तरफ पैंठ ( हाट) लगती थी। उस दिन पैंठ का दिन नहीं था लेकिन कुछ लोग अपने ठेले लेकर खड़े हुए थे। एक ठेले पर मीठे गुलगुले थे तो दूसरे पर फल। नीचे जमीन पर एक आदमी चादर बिछा कर किताबें बेच रहा था। मैं और अंजलि रुक कर किताबें देखने लगे। विक्रम- बेताल, सिंहासन बत्तीसी, तेनालीरामा और भी कई तरह की किताबें थी उसके पास, कुछ फिल्मी पत्रिकाएं और खान- पकवान की विधियों की भी किताबें थीं।

अचानक कुत्ते के तेजी से भौंकने और फरहा के जोर से चिल्लाने की आवाज आई। मैंने मुड़ कर देखा तो फरहा तेजी से भाग रही थी और वह कुत्ता भी उसके पीछे तेजी से भाग रहा था। वहाँ से गुजरते लोगों ने फरहा से वहीं रुकने को कहा क्योंकि जब हम डर कर भागते हैं तो कुत्ते हमारा डर भांप कर हमारे पीछे पड़कर हमला कर सकते हैं। लेकिन फरहा इतनी डरी हुई थी कि वह रुक नहीं रही थी। लोग कुत्ते को डराने के लिए जोर - जोर निकालने लगे ओर उस पर कंकड़ फेंकने लगे। इतने लोगों से घिरने के कारण कुत्ता रुक गया और चुपचाप दुम दबाकर एक तरफ चला गया। फरहा रो रही थी। मैंने आव देखा न ताव, भाग कर उसके पास गई और उसका हाथ पकड़ कर चलने लगी। फरहा ने मुझे देखा तो आंसुओं में भी मुस्कुरा दी। अंजलि भी हमारे साथ आ गई थी। अंजलि के घर का मोड़ आने के पहले हम दोनों की " पुच्चा" हो गई थी।

तब से अब तक तो सब ठीक था लेकिन कब लड़ाई हो जाये और किस बात पर हो जाय, यह कहा नहीं का सकता था इसलिए चुप रहना ही सही था। स्कूल में प्रार्थना के बाद हम सब अपनी- अपनी क्लास में आकर बैठ गए। आज अंजू की सहेली नहीं आई थी तो उसने मुझसे अपने पास बैठने के लिए कहा। अंजू की सीट सबसे आगे थी। मुझे आगे की सीट पर बैठना बहुत पसंद था लेकिन मेरी सीट चौथे नम्बर पर थी इसलिए मैं तुरन्त जाकर अंजू के पास बैठ गई। घुंघराले बालों वाली अंजू पढाई में भी बहुत तेज थी। क्लास की इतनी लड़कियों को छोड़कर उसने मुझे अपने पास बैठने के लिए बुलाया ,यह सोचकर ही मैं गर्व से भर गई थी। खुद को बहुत खास समझते हुए मैंने एक नजर सभी पर डाली और अंजू के पास तन कर बैठ गई। अब चूंकि अंजू पढाई में अच्छी थी तो उसके सामने मैं खुद को कमतर कैसे दिखा सकती थी इसलिए मैडम की समझाई हर बात को पूरी गम्भीरता से समझ कर कॉपी में लिखती जा रही थी। भूगोल के पीरियड में जब मैडम ने मेरे सही जबाब देने पर शाबास कहा तो अंजू के साथ ही साथ मैंने प्रबल की आंखों में भी प्रशंसा के भाव देखे।

यह देखकर मैं खुश हो गई क्योकि प्रबल क्लास में हमेशा प्रथम आता था, उसने मुझे नोटिस किया यह बात न जाने क्यों मुझे अच्छी लगी। 

लंच टाइम में सोमेश मेरे पास आया और बस इतना कहा, " आज तुम ड्राइंग की कॉपी लाई हो?"

" नहीं, मैं भूल गई लाना।", मैंने बहाना बना दिया क्योकि ड्राइंग की कॉपी पापा के लाते ही मैं 3-4 दिन में ही अपनी कलाकारी से भर देती थी। सोमेश मेरे पास वाली लाइन में ही बैठता था ।

मैडम की डांट से बचाने के लिए वह अक्सर मुझे अपनी ड्राइंग की फाइल से एक शीट निकाल कर दे देता था।

" कोई बात नहीं, मैं दे दूंगा।", कहकर सोमेश चला गया लेकिन मुझे ऐसा लगा कि वह केवल यह कहने के लिए नहीं आया था पर क्या कहने आया होगा! .....यह मुझे समझ नहीं आया और मैं कंधे उचका कर चारु के साथ स्टेज के पास लगे शीशम के पेड़ के नीचे अपना टिफिन लेकर चली गई।

टिफिन खत्म कर हम सभी लड़कियां स्टेज पर खेलने के लिए चढ़ गई। मैं और फरहा स्कूल में साथ नहीं रहते थे क्योकि घर पहुंचने के बाद सारा समय हम एक दूसरे के साथ ही खेलने में बिताती थीं इसलिए स्कूल में दूसरी सहेलियों के साथ बैठते थे वैसे भी हम दोनों के सेक्शन अलग- अलग थे।

मैंने स्कूल के गार्डेन में बैठी लड़कियों के बीच अंजू को ढूंढने की कोशिश की। वह मुझे इंटरवल की घण्टी बजने के समय भी दिखाई नहीं दी थी और अब भी कहीं नहीं दिख रही थी।

" तू किसे ढूंढ रही है? ", बबीता ने पूछा।

" अंजू नहीं दिख रही।"

" आज तू अंजू के साथ क्या बैठ गई जबसे उसी का नाम लिए जा रही है।", चारु न जाने क्यों गुस्सा हो गई थी जबकि मैंने इतनी देर में पहली बार उसका नाम लिया था। " अब तुझे खेलना है तो आ नहीं तो ढूंढती रह अपनी अंजू को।", कहकर चारु दूसरी लड़कियों के साथ चली गई। मैंने भी देर नहीं की और तुरन्त अपनी सहेलियों के पास दौड़ लगा दी। चारु और बबीता मुझे अपने पास आता देखकर खुश हो गईं।

हम सभी लड़कियां दो समूह बना कर "विष- अमृत" खेलने लगीं। बहुत मजा आ रहा था। निधि हमारी टीम की लीडर थी दूसरी टीम की लड़कियां जैसे ही हमें विष करके बैठा देती थी वह बिजली की तेजी से आकर हमें अमृत देकर खड़ा कर देती थी और हम फिर से भागने लगते थे। हमारी टीम के पोइन्टस दूसरी टीम से ज्यादा थे।

तभी अंसार अली आ गया और अकड़ते हुए हम सभी से स्टेज से नीचे जाने के लिए कहने लगा। " क्यों जाए! यह जगह सबकी है।" हम सभी लड़कियां खेल में रुकावट पड़ने से नाराज हो गई। 

" क्योकि अब हम लोग यहां खेलेंगे।", उसके पीछे पहलवान टाइप के दो लड़के राजीव और सोहेल भी आ कर खड़े हो गए। ये तीनों क्लास के बिगड़े हुए लड़ाका बच्चे थे। हम लड़कियां इन तीनों को बिल्कुल भी पसन्द नहीं करती थीं।

" हम यहां से नहीं जाएंगी।"

" तो ठीक है, हम तुम्हारा खेल बिगाड़ देंगे।", यह कहते हुए वे तीनों हम लड़कियों के बीच में बिना वजह भागते हुए एक दूसरे को पकड़ने का खेल खेलने लगे। 

हम सभी का मूड खराब हो गया था लेकिन हम अब उन लोगों से उलझना भी नहीं चाहती थीं इसलिए स्टेज से नीचे उतर गई। हमें जाता देख वे तीनों जोर से हँसते हुए डरपोक- डरपोक कहने लगे।

तब तक इंटरवल खत्म होने की घण्टी बज गई और सभी लोग अपनी- अपनी क्लास की तरफ जाने लगे। क्लास में जाते हुए मैंने अंजू को भी अपने पास आते हुए देखा। 

अपनी सीट पर बैठने के बाद मैंने अंजू से पूछा कि तुम इंटरवेल में कहाँ थी? मैं तुम्हें ढूंढ रही थी। तो उसने गोलमोल सा जबाब देकर बात को घुमा दिया।

तभी सोमेश मेरे पास आया और मेरी डेस्क पर ड्राइंग की शीट रखकर चुपचाप चला गया। इंटरवेल के बाद ड्राइंग की क्लास होती थी लेकिन मैडम अभी आई नहीं थी।

"अंजू, तुम्हारा घर कहाँ है?", मैंने बात शुरू करने की गरज से पूछा।

" मेरा घर काफी दूर है। क्रोसिंग की तरफ से जो रास्ता नहर की तरफ जाता है न, बस उसी तरफ मेरा घर है।", अंजू की यह बात सुनकर मेरी तो बांछे खिल गई। " थैंक्स गॉड! अब मैं क्रोसिंग तक जा सकती हूं!", मैंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद किया।

" आज छुट्टी के बाद मैं तुम्हारे साथ चलूं? तुम अपने घर चली जाना, मैं अपने घर चली जाऊंगी।"

" तुम्हारा घर भी वही है क्या?", उसने आश्चर्य में भरकर कहा।

" नहीं, उधर नारायण अंकल का घर है, मम्मी ने कहा था कि लौटते वक्त मैं उनके घर होती हुई आऊं क्योकि उनको कुछ सामान देना है। ",मैंने तुरन्त एक बहाना बना दिया।

" ठीक है।", अंजू ने कहा। तभी मैडम भी क्लास में आ गई और हम सब अपनी - अपनी जगह खड़े हो गए। मैडम ने इशारे से हमें बैठने के लिए कहा और अपनी ड्राइंग शीट्स व किताब निकालने के लिए बोला।

मैंने सोमेश की दी हुई ड्राइंग शीट अपनी तरफ खींची। उस ड्राइंग शीट ने नीचे कुछ रखा था। मैंने शीट हटाई तो देखा उसके नीचे एक पारले की टॉफी रखी हुई थी। 

मैंने टॉफी उठाकर चुपके से अपने पेंसिल बॉक्स में रख ली। मैडम जब बोर्ड पर हमें छह पत्ती का गोला बनाना सिखा रही थीं मैंने मुड़ कर सोमेश की तरफ देखा । वह मेरी ही तरफ देख रहा था। आंख के इशारे से उसने टॉफी के विषय में बताया तो मैंने उसे पेंसिल बॉक्स छूकर इशारे से बता दिया। वह आश्वश्त होकर ब्लैक बोर्ड की तरफ देखने लगा।

सोमेश कभी- कभी मेरे लिए टॉफी ले आता था, यह कोई नई बात नहीं थी। सभी पीरियड्स खत्म होने के बाद छुट्टी की घण्टी बज गई। हम सभी प्रार्थना सभा मे गए, राष्ट्रगान के बाद हम सभी एक - एक करके लाइन से स्कूल के गेट से बाहर निकलने लगे। मैं अंजू के साथ थी। बाहर निकलते ही मैंने फरहा को अपने इंतजार में खड़ा देखा।" फरहा, मैं तुझे बताना भूल गई। आज मुझे नारायण अंकल के यहाँ जाना है इसलिए आज तुम अंजली के साथ चली जाओ।", मेरे आगे के शब्द मेरे गले में ही अटके रह गए क्योकि सामने से दादाजी आ रहे थे।

" अब क्या होगा!", शक की कोई गुंजाइश नहीं थी क्योकि दादाजी हमें लेने ही आये थे। " दादा जी , आज आप?", उनके पास आने के पहले ही मैंने अंजू को जाने के लिए कह दिया था।

" मैं यहां पोस्ट ऑफिस तक आया था तो सोचा समय तो हो ही गया है, तुम बच्चों को भी साथ लेता चलूं। चलो अब.."।

" लेकिन...", इससे पहले कि फरहा कुछ कहती मैंने उसका हाथ जोड़ से पकड़ कर उससे दादा जिबके साथ चलने के लिए कहा। मनमोहन अंकल की दुकान के किनारे पर बने नाले के पुल को पार करते हुए जब दादाजी चार कदम आगे निकले तो मैंने धीरे से फरहा को कुछ भी न बताने की हिदायत देते हुए कहा कि शाम को बताऊंगी सारी बात।

( क्या शाम को सारी बात जानकर फरहा मेरी मदद करेगी? अंजू लंच टाइम में आखिर कहां जाती है? इन सब सवालों के जबाब मिलेंगे आपको अगले भाग में तब तक चॉकलेट न खरीद पाई तो क्या हुआ पारले की टॉफी भी कम स्वादिष्ट नहीं है, क्या आपने भी खाई है यह टॉफी लाल रंग के रैपर में लिपटी हुई)



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