“थोड़ी खुशी का एहसास” ( संस्मरण )
“थोड़ी खुशी का एहसास” ( संस्मरण )
आने वाली खुशियों का स्वागत लोग तहेदिल से करता है। पुरानी यादें, पुराना परिवेश और पुराने दोस्त की कमी तो खलती है पर आने वाले सुखद लम्हे को हम अपनी बाँहें फैलाए स्वागत करते हैं। आखिर हम इसे अस्वीकार भला कैसे कर सकते हैं ! प्राथमिक स्कूल के शिक्षक, छात्र -छात्राएं और वहाँ का परिवेश जो बदलने वाला था।
शिक्षक तो वहीं रह गए पर हमें अपनी मंजिल जो चुननी थी। पाँचवीं श्रेणी के बाद छात्रा की शिक्षा अलग गर्ल्स स्कूल में होती थी और छात्र के लिए दुमका अलग होती थी। उस समय दो ही स्कूल थे। एक जिला स्कूल और दूसरा नैशनल हाई स्कूल। सब लोगों अपनी -अपनी मंज़िल की ओर निकाल पड़े। किसी ने इस स्कूल का रुख किया, किसी ने उस स्कूल का रुख किया। कई छात्र -छात्राएं ने अन्य शहरों और प्रांतों की ओर चल दिए। बिछुड़ने का गम धूमिल हो रहा था। खुशियों की हवा जो सामने से स्वागत कर रही थी।
प्राथमिक पाठशाला को अलविदा कहा। सब शिक्षकों से आशीर्वाद लिया और स्थानांतरण, प्रमाणपत्र और अंकपत्र को लेकर जनवरी 1963 में मैंने अपना नैशनल हाई स्कूल, दुमका में दाखिला करवाया। उस समय श्री नारायण दास गुप्ता नैशनल हाई स्कूल के संचालक और प्रधानाचार्य थे। नियमानुसार मेरा भी साक्षात्कार हुआ। उन्होंने मुझसे सिर्फ इतना ही कहा, ---
“ ठीक से पढ़ना, नियमित स्कूल आना।“
मैं प्रणाम करते निकाल गया। उन्हें देखकर मेरे पसीने छूट रहे थे। उनका कद काठी आज के अमिताभ बच्चन महानायक के तरह था पर वे सादा धोती पहना करते थे। उनके हाथों में एक छोटी छड़ी हमेशा रहती थी।
यहाँ तो बड़ा क्लास -रूम, टेबल -बेंच और क्लास टीचर के लिए एक बड़ा टेबल और कुर्सी थी। हमारे क्लास टीचर महावीर सिंह थे। उन्होंने हमलोगों को अंग्रेजी पढ़ाना प्रारंभ किया था। उन दिनों छठवीं क्लास से अंग्रेजी पढ़ाई जाती थी। हम लोगों ने इसी क्लास से ABCD सीखना प्रारंभ किया। महावीर सर स्पोर्ट्स के भी टीचर थे और साथ -साथ NCC विभाग का भी देख रेख करते थे। पर ये विभाग ना के बराबर था। लेकिन क्लास संचालन के नियमों को वो कभी अनदेखी नहीं करते थे। सागर बाबू, पतित बाबू, केदार सर, रामनाथ सर, भोला सर, प्रभाकर सर, ओमिओ सर और कई शिक्षकों के प्रतिभाओं ने हमें खुशियाँ प्रदान की जो विगत प्राथमिक स्कूल में हम इन सुविधाओं से महरूम रहे।
दुमका नगर के पूर्वी क्षेत्र कॉलेज के पास मैं रहता था और यह मेरा नैशनल स्कूल पश्चिम छोर पर था। यह 3 किलोमिटर पर था। प्रतिदिन मैं पैदल जाता था। उन दिनों यातायात के साधन नहीं थे। यहाँ तक बहुत कम लोगों के पास सायकिल हुआ करती थी। शहर में सिर्फ तीन टाँगें ( टमटम ) थे। वे अधिकाशतः माल ढोने और प्रचार करने में काम आते थे।
सीमित साधनों के प्रकोप से हमारा भी स्कूल ग्रसित था पर थोड़ी खुशी का एहसास अवश्य होता था। चलो छः सालों के बाद कॉलेज के दर्शन होंगे। 11 क्लास में मेट्रिक बोर्ड हुआ करता था। 1963 -1968 तक इस स्कूल में पढ़ते रहे। 1968 में मेट्रिक पास कर गए। पर आज तक इस विध्या मंदिर को ना भूल पाया।
आज यह नैशनल स्कूल 10 +2 हो गया है। इसमें अब लड़के- लड़कियाँ एक साथ पढ़ते हैं। राजकीय विध्यालय बनने के बाद यह झारखंड उप- राजधानी दुमका का उत्कृष्ट स्कूल बन गया है। समय बदलता गया। विकास के पथ पर चलते रहे। आज मुझे अपने स्कूल को देखकर गर्व हो रहा है। विकास के हरेक पायदानों को छू लिया है।
