स्याह उजाले-1
स्याह उजाले-1
क्लास शुरू हो चुकी थीI इकोनोमिक्स शर्माजी पढ़ाते थेI पढ़ाते क्या व्यावहारिक होकर समझाते थेI ऐसे कि बात सीधा दिमाग में घुसती थीI आते के साथ उन्होंने रोल नंबर के हिसाब से परीक्षा के परिणाम बताना शुरू कियाI रोल नंबर 1... 2... 3...I अंत में उन्होंने मेरे तरफ देखा - “तुमसे ज्यादा की उम्मीद थीI” मैंने सर झुका लियाI
हम सिर्फ दिखाने के लिए पढ़ते थेI कुछ लक्ष्य था नहीं क्या करना है क्या बनना है? समय के धारा में बहे जा रहे थेI नौवीं क्लास से हमारी इकोनोमिक्स शुरू होती थी, नौवीं से ही हम अपने नए उगे पंखों को भी आजमाते थेI हमारे गाँव का हाई स्कूल आस पास के पाँच छह गाँव में इकलौता था इसलिये उसमें बच्चों की संख्या अधिक थीI सातवीं-आठवीं में एक और नौवीं दसवीं में दो सेक्शन थेI स्कूल छोटा था लेकिन कैंपस बड़ा था आठवीं के बाद हमने क्लास से गोल होना सीख लिया थाI इसमें हमारे सीनियर का बड़ा योगदान थाI इसी बीच में हमने तालाब में नहाना-तैरना सीखाI बेलों को पकड़कर पेड़ पर चढ़ना सीखाI इमलियाँ तोड़ी, टिकोला तोड़ा, अमरूद तोड़ा और गिरे हुए जामुन को चुन-चुनकर खायाI हमारे अलग-अलग गुट थेI सीनियर से पंगा लिए बिना हम जूनियरों पर धौंस जमाते थेI
हाई स्कूल हमारे घर से 3-4 किमी की दूरी पर थाI पहले तो हम पैदल जाते थेI मेरे पास एक साइकिल थी जो पापा को दहेज़ में मिला थाI पापा जब काम के चक्कर में बाहर गये तो माता ने इस्तेमाल नहीं होने के कारण उसे टांड पर रखवा दिया था जो धीरे-धीरे जंग खाकर ख़राब हो रहा थाI थोड़े समय बाद मैंने जिद करके उसे उतरवा लियाI थोड़ी मरम्मत के बाद वो चलाने लायक हो गया थाI साइकिल चलाना सीखकर हम फिर उसी से स्कूल आने-जाने लगेI अब स्कूल जाने में समय भी कम लगता था और मेहनत भी कम होती थी, साइकिल चलाने में हमें मज़ा भी खूब आता थाI