सतलड़ा
सतलड़ा
रवि अभी ऑफिस के लिये निकले थे।तभी माँ का फोन आ गया।माँ का फोन हमेशा सुबह दस बजे आता ही था।आज थोड़ा जल्दी आ गया।
फोन उठाते ही मैंने मजाक करते हुये यूँ ही पुछ लिया,"क्यों माँ, आज आपका कौन सा बहू ऐपिसोड आने वाला हैं।माँ, अभी इशिता नयी आई हैं,उसे जरा वक्त दो उस घर में ढलने का।"
मेरी बात सुन पहले तो माँ थोड़ी देर का मौन ही धारण कर गयी,मुझे लगा शायद फोन कट गया।मैं फोन रखने ही जा रही थी कि माँ की एकदम सर्द आवाज सुनाई दी," आज तक तू मुझे ही हर बात का दोषी समझती हैं।क्या मैं तेरी भाभी की दुश्मन हूँ जो हर समय उस पर बातों के चाबुक ही चलाती हूँ।तेरी भाभी बहुत सयानी निकली।आज तेरे भाई को भेज मुझसे वही सतलड़ा मँगवा रही थी,जो तेरी देवर की शादी में मैंने पहना था।"
माँ की भाभी के प्रति ऐसी सोच मुझे पंसद नहीं आई, न मुझे माँ की बात का इतना यंकी हुआ।माँ की गहनो के प्रति दीवानगी मुझे पता थी।शायद ये माँ का शंकालु ख्याल था या वाकई में ऐसा कुछ?
"तु फटाफट बस घर आ जा"? माँ का अगला आदेश ही था ये।
मेरा मन भी उलझ गया था।माँ नयी बहू से तालमेल ही नहीं बिठा पा रही थी।शायद माँ को अपना एकछत्र राज्य छीजता लगता था।पर आज मामला दर्ज अलग था।सो, घर जल्दी से घर समेट -समूट कर मैं माँ के घर बढ़ गयी।
दरवाजा ईशिता ने ही खोला।वही निर्मल, सरल हंसी।इस हंसी में छल था ही कहाँ? पीछे माँ भी आई और मुझे लगभग घसीटती अपने कमरे में ले गयी।क्या यही सब आचरण करने के लिए माँ इतने शौक से बहू लायी थी।
कमरे में जाते ही माँ ने सिलसिलेवार तरीके से सारा ब्योरा दिया और फिर ये कह मुझे चौंका ही दिया।
" इस हार के मैं दो टुकड़े कर दूँगी।एक तेरे हिस्से का और एक अभी मेरे हिस्से रहेगा।बाद में तो तेरी भाभी के पास ही जायेगा।अपने जीते जी कर दूँ, बाद में पता नहीं तेरे भाई-भाभी की नियत में कैसा खोट आ जाये।"
तभी परदे के पीछे से इशिता ट्रे में पानी ले आई।
ट्रे रखने के बाद भी वो खड़ी रही।मैं बहुत शर्मिंदा सी हो गई।"आज इस बेवजह के आरोपो में शायद भाई-भाभी छूट ही न जाये।"
पर इशिता ने बहुत सहज होकर कहा,"माँ, मैंने इनसे मना किया था हार माँगने के लिए।"पर चार दोस्तो में इन्हें अपना रौब जमाना था।फिर न इतना भारी हार और न इतनी बड़ी जिम्मेदारी मैं संभाल पाती।मुझे वैसे भी गहनो का इतना शौक नहीं।इसे तोड़ कर इसके मुल्य को कम न करे।निःसंकोच इसे दीदी को दे दे।जो पैसा या जेवर रिश्तों में दरार डाल दे उसे पहन कर भी कौन सा सुख मिल जायेगा।"ये कह ईशिता तो बाहर चली गई पर माँ की आँखो में बसी सतलड़े की चमक अब धूमिल हो गई थी।