सोच (लघुकथा)
सोच (लघुकथा)
जैसे ही शीतल बस से उतरी, एक रिक्शावाला उसके साथ-साथ चल पड़ा। मैडम जी, कहाँ जाना आपको ? मैं लिये चलता हूँ। घृणित दृष्टि से शीतल ने उस युवा रिक्शेवाले को देखते कहा, "मैं तुमसे रोज कहती हूँ, मुझे नहीं बैठना तुम्हारे रिक्शा के ऊपर, फिर भी तुम रोज सिर खाने चले आते हो ? क्यों वक्त बर्बाद करते हो? "मैं तुम जैसे लफंगों को अच्छी तरह पहचानती हूँ।"
"ऐसा नहीं है मैडम !!
"मैडम, आप एक अच्छे घर की लड़की हैं। जमाना खराब है। युवा रिक्शेवाला बोला!"
"हूँ, बड़ा आया मुझे समझाने वाला!!"
तेज रफ्तार से चलती शीतल ने शीघ्रता से सड़क पार खड़े दूसरे रिक्शा को आवाज़ देते हुये कहा!! ओ रिक्शा वाले, माल रोड, चलो जल्दी ! मैं कॉलेज से लेट हो रही हूँ ! अधेड़ावस्था के रिक्शेवाले ने अपनी मूँछों को ताव दिया, गले में पहना गमछा सँवारा। शीतल का दुपट्टा पकड़ते हुये बोला, इतनी जल्दी क्या है मेरी जान !! घबराई हुयी शीतल कभी उस युवा रिक्शेवाले को देख रही थी और कभी अधेड़ावस्था के रिक्शेवाले को!!