संतरे के छिलके
संतरे के छिलके
शाम के पांच बज रहे थे। एक विशेष सरकारी काम से मैं और मेरे साथ मेरी दो सह- शिक्षिकाएं ठाणे से लौट रही थीं। ट्रेन प्लैटफॉर्म पर लगी हुई है यह देखकर हम खुश हो गए कि चलो अब ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा। किस्मत अच्छी थी कि ट्रेन में चढ़ते ही खाली सीट भी मिल गई।
हमारे सामने की ही सीट पर एक महिला भी अपनी नौ दस साल की लड़की के साथ सफर कर रही थी। केवल तीन ही स्टेशनों के बाद उसे उतरना भी था।
ट्रेन चलते ही कई फेरीवाले अपना -अपना सामान बेचते हुए हमारे सामने से गुज़रे। परंतु पंद्रह मिनट के इस सफर में कोई भी फेरीवाला ऐसा न था, जिससे उस महिला ने कुछ ख़रीदा न हो। मोल - भाव करके एक संतरे वाले से उसने दस रुपए के तीन संतरे भी ख़रीद लिए। दो संतरे बेटी को पकड़ा कर तीसरा वह खुद खाने लगी।
जैसे ही संतरे ख़त्म हुए, न आव देखा, न ताव, सारे छिलके उसने एक झटके में ट्रेन की खिड़की से पार कर दिए। और फिर जैसे अनजान बनकर सबसे आँखें बचाती हुई अपने पर्स में कुछ ढूँढने लगी। इस बीच उसकी बेटी ने भी संतरे खा लिए थे पर असमंजस में बैठी थी कि छिलकों का किया क्या जाए... शायद स्कूल में दी जाने वाली शिक्षा और मोदी जी के स्वच्छ भारत अभियान का असर उस पर इतना तो हुआ ही था कि वह छिलकों को ट्रेन की खिड़की से बाहर फेंकने से हिचकिचा रही थी और यह भी समझ रही थी उसके ऊपर कभी -कभार हमारी नजर भी चली जा रही है।
बहरहाल, थोड़ी देर तक जब उसे कुछ नहीं सूझा तो उसने अपने छिलके भी अपनी माँ को पकड़ा दिए और माँ ने इस बार भी अपने उसी अंदाज़ में छिलकों को उसके अंतिम गन्तव्य तक पहुँचा दिया। बेटी बगले झाँकने लगी और हम तीनों निशब्द..... कहते भी क्या। बस एक दूसरे का मुँह ताकते रह गए।
