समय का अनुशासन
समय का अनुशासन
बचपन में जो सीखते हैं वह उम्र भर बना रहता है ।एक बार बचपन में जो आदत पड़ जाती है ,वह बड़े होने तक काम आती है। बचपन में सोना कितना अच्छा लगता है ।सुबह की ठंडी ठंडी हवा चलती है तो उठने का मन नहीं करता ।गर्मियों में खुले ऑंगन में सोया करते थे । शाम के समय आँगन में छिड़काव हो जाता था जिससे ऑंगन ठंडा रहता था। रात को वहाँ सबकी खाटें बिछ जाती थीं। सुबह उठने पर खाट उठा दी जाती थी। हम उठना नहीं चाहते थे तो माँ कहती थीं-
‘उठो दिन निकलने वाला है। अब ऑंगन में झाड़ू पड़ेगी ,बिस्तरा उठाना है’।
हमारे नहीं उठने पर खटिया उल्टी कर दी जाती थी ,तो हमें उठना ही पड़ता था। सभी लोग सूर्योदय से पहले उठ जाते थे और फिर नित्य कर्म करना होता था। बड़ों को प्रणाम करना और शौच आदि से निवृत्त होना। फिर अध्ययन के लिए बैठना। इसमें आलस्य नहीं करना था। दादी कहती थीं-
“ दाँत में मंजन ,ऑंख में अंजन,
नित कर नित कर नित कर।
कान में तिनका,नाक में उँगली,
मत कर मत कर मत कर। “
हमें यह सब करना अच्छा नहीं लगता था लेकिन बड़ों के डर से करना पड़ता था। अब पता चलता है ये सब अच्छी आदतें बचपन से ही डाल दी गई थीं जो अब बड़े होने तक हमें काम दे रहीं हैं। रोज़ सुबह उठकर मंजन करते हैं, किसी को नाक या कान में उंगली डालते देखकर अब हम भी उसे मना करते हैं।
दूसरी सीख जो बचपन में दी गई ,वह थी सुबह सुबह ही स्नान करने की। जाड़ों की सुबह नल से निवाया पानी हल्की भाप लिये निकलता था जो नहाने में आरामदायक लगता था। पहला पानी डालने के बाद फिर उससे ठण्ड नहीं लगती थी, और नहाकर ताजगी आती थी।
एक और सीख जो बचपन में मिली वह थी शान्ति से स्थिर होकर बैठना व्यर्थ में हाथ पैर नहीं हिलाना। हम बैठे हुए पैर हिलाते थे तो दादी हमेशा टोकती थी,और हाथ से रोक देती थीं। बड़े होकर पता चला कि जिसमें आत्मविश्वास होगा वह हमेशा स्थिर होकर बैठेगा ,बेचैनी से हाथ पैर वग़ैरह नहीं हिलायेगा। बल्कि पैर हिलाते हुए बैठना कोई सभ्य तरीक़ा नहीं है ।
आज कल के बच्चों को देखते हैं कि सोने उठने का कोई टाइम नहीं है। अपनी मन की मौज़ से उठते हैं; उठने में सुबह के आठ, नौ ,दस से लेकर दोपहर के दो तक बज जाते हैं ,सारा दिन बेकार हो जाता है कोई काम समय पर नहीं हो पाता। उठने में आलस्य या प्रमाद नहीं करना चाहिए। सजगता से समय पर काम कर लेने से स्वास्थ्य भी ठीक रहता है ,दिमाग़ भी शांत बना रहता है।
