सिर्योझा - 5
सिर्योझा - 5
लेखक: वेरा पनोवा
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
साइकल ख़रीदी गई
और इसी कंधे पर बैठकर वह इतवार को दुकान में गया – साइकल ख़रीदने.
इतवार अचानक ही आ गया, उम्मीद से भी पहले, और सिर्योझा बेहद उत्तेजित हो गया, यह जानकर कि वह आ गया है.
“तुम भूले तो नहीं?” उसने करस्तिल्योव से पूछा.
“कैसे भूल सकता हूँ,” करस्तिल्योव ने जवाब दिया, “हम बिल्कुल जा रहे हैं. बस, मैं थोड़े से काम निपटा लूँ.”
मगर काम के बारे में उसने झूठ ही बोला था, कोई काम करता हुआ वह दिखा ही नहीं, बस बैठे बैठे मम्मा के साथ बातें कर रहा था. बातचीत समझ में भी नहीं आ रही थी और दिलचस्प भी नहीं थी, मगर उन्हें वह अच्छी लग रही थी. वे बस बोले ही चले जा रहे थे, ख़ास तौर से मम्मा तो लम्बी लम्बी बात करती है : एक ही शब्द को न जाने क्यों सौ बार दुहराती है. उसी से करस्तिल्योव भी यही सीख रहा है. सिर्योझा उनके चारों ओर डोल रहा है, अपने भीतर की उत्तेजना से शांत, एक ही ख़याल पर अपना ध्यान केन्द्रित किए हुए, और राह देख रहा है – कब वे अपना यह काम ख़त्म करेंगे.
“तुम सब समझते हो,” मम्मा कह रही है. “मुझे कितनी ख़ुशी हुई यह जानकर कि तुम सब समझते हो.”
“सच कहूँ तो,” करस्तिल्योव ने जवाब दिया, “इस बारे में तुमसे मिलने से पहले, मैं बहुत कम जानता था. बहुत कुछ समझ में नहीं आता था, सिर्फ तभी समझना शुरू किया, जब – तुम समझ रही हो...!”
वे एक दूसरे के हाथ पकड़ते हैं, जैसे ‘गोल्डन गेट’ खेल रहे हों.
“मैं छोटी बच्ची थी,” मम्मा कह रही है, “ मुझे ऐसा लगता था कि मैं बेहद, बेहद ख़ुशनसीब हूँ. फिर मुझे ऐसा लगा जैसे मैं दुख से मर जाऊँगी. मगर, अब ऐसा लगता है जैसे वह सब एक सपना था...”
उसे एक नया शब्द मिल गया और वह उसे पक्का याद कर रही है, करस्तिल्योव के बड़े बड़े हाथों से अपना चेहरा ढाँपते हुए:
“सपना था, समझ रहे हो? जैसे सपने दिखाई देते हैं. ये सब सपने में हुआ था. मुझे सपना आया था. और आँख खुली तो - तुम...”
करस्तिल्योव उसे बीच ही में रोकते हुए कहता है:
“मैं तुमसे प्यार करता हूँ.”
मम्मा को यक़ीन ही नहीं होता. “सच?”
“प्यार करता हूँ,” करस्तिल्योव ज़ोर देकर कहता है.
मगर मम्मा को फिर भी यक़ीन नहीं होता. “सच – प्यार करते हो?”
उससे ऐसा कह देता : ‘कसम से’ या ‘धरती में समा जाऊँ अगर झूठ बोलूँ तो’, सिर्योझा सोचता है, ‘तब वह यक़ीन कर लेती.’
करस्तिल्योव जवाब देते देते बोर हो गया, वह ख़ामोश हो गया और मम्मा को देखने लगा, और वह उसकी ओर देखने लगी. इस तरह से वे, शायद, घंटे भर से एक दूसरे को देख रहे हैं. फिर मम्मा कहती है, “मैं तुमसे प्यार करती हूँ,” (जैसा कि खेल में होता है, जब सभी बारी बारी से एक ही शब्द को दुहराते हैं).
‘ये कब ख़त्म होगा?’ सिर्योझा सोचता है.
ज़िन्दगी के बारे में जो थोड़ी बहुत जानकारी उसे थी, वह, बेशक, उससे कह रही थी, कि जब बड़े लोग अपनी बातों में मगन होते हैं तो उन्हें परेशान नहीं करना चाहिए : बड़े लोगों को यह अच्छा नहीं लगता, वे गुस्सा कर सकते हैं, और, न जाने, इसका क्या नतीजा निकले. मगर वह बड़ी सावधानी से अपने बारे में याद दिला देता है, उनकी नज़रों के सामने रहकर, गहरी गहरी साँसें लेते हुए.
आख़िर उसकी परेशानियों का अंत हो ही गया. करस्तिल्योव ने कहा, “मार्याशा, मैं घंटे भर के लिए बाहर जाऊँगा, हमने सिर्योझा के साथ एक काम के लिए जाने का वादा किया है.”
उसके पैर लम्बे हैं, सिर्योझा ठीक से देख भी न पाया कि एकदम – चौक आ गया, जहाँ दुकानें हैं. यहाँ करस्तिल्योव ने सिर्योझा को नीचे उतार दिया और वे खिलौनों की दुकान की ओर चले.
दुकान की खिड़की में मोटे गालों वाली गुड़िया असली चमड़े के जूते पहने, पैर फैलाए मुस्कुरा रही थी. नीले नीले भालू लाल लाल ड्रम पर बैठे थे. पायोनियर बच्चों का बिगुल सोने जैसा दमक रहा था. सुख की कल्पना से सिर्योझा की साँस रुकने लगी... दुकान के अन्दर संगीत बज रहा था. कोई एक अंकल हाथ में एकार्डियन लिए कुर्सी पर बैठा था. वह बजा नहीं रहा था, बल्कि सिर्फ थोड़ी थोड़ी देर में एकार्डियन को खींच देता था, तब उससे दिल को तड़पाने वाली, सिसकियाँ लेती कराह निकलती और वह चुप हो जाता; और दूसरी ओर से ज़ोरदार म्युज़िक सुनाई देने लगता, काउंटर के पास से. बढ़िया कपड़ों मे सजे धजे बहुत सारे अंकल, टाई पहने, काउंटर के सामने खड़े थे और म्युज़िक सुन रहे थे. काउंटर के पीछे बूढ़ा सेल्समेन खड़ा था. उसने करस्तिल्योव से पूछा:
“आपको क्या चाहिए?”
“बच्चों की साइकल,” करस्तिल्योव ने कहा.
बूढ़े ने काउंटर के ऊपर से झुककर सिर्योझा की ओर देखा.
“तीन पहियों वाली?” उसने पूछा.
“तीन पहियों वाली मुझे क्यों चाहिए...” सिर्योझा ने तनाव के कारण थरथराती आवाज़ में कहा.
“वार्या!” बूढ़ा चिल्लाया.
उसकी पुकार पर कोई भी नहीं आया, और वह, सिर्योझा के बारे में भूल गया – अंकल लोगों के पास गया और वहाँ उसने कुछ किया, और ज़ोरदार म्युज़िक अचानक रुक गया, एक धीमा धीमा दुख भरा म्युज़िक सुनाई देने लगा. सिर्योझा यह देखकर बेहद परेशान हो रहा था कि करस्तिल्योव भी भूल गया था कि वे यहाँ किसलिए आए हैं : वह भी अंकल लोगों के पास गया, और वे सब बिना हिले डुले खड़े रहे, बस सामने की ओर देखते हुए, सिर्योझा और उसके कँपकँपाहट भरे इंतज़ार के बारे में ज़रा भी न सोचते हुए...सिर्योझा से रहा नहीं गया और उसने करस्तिल्योव की जैकेट पकड़ कर खींची. करस्तिल्योव होश में आ गया और गहरी साँस लेते हुए बोला, “लाजवाब रेकार्ड है!”
“ये हमें साइकल देंगे ना?” खनखनाते हुए सिर्योझा ने पूछा.
“वार्या!” बूढ़ा चिल्लाया.
ज़ाहिर है, इस वार्या के ऊपर ही निर्भर करता था कि सिर्योझा के पास साइकल होगी या नहीं होगी. आख़िरकार वो वार्या आ ही गई, वह काउंटर के पीछे, शेल्फ़ों के बीच में बने एक छोटे से दरवाज़े से आई, वार्या के हाथ में ब्रेड-रोल था और वह उसे चबा रही थी. बूढ़े ने उसे गोदाम से दो पहियों वाली साइकल लाने के लिए कहा, ‘इस नौजवान के लिए’, उसने कहा. सिर्योझा को अच्छा लगा कि उसे इस नाम से पुकारा गया.
गोदाम, बेशक, सात समन्दर पार ही था, क्योंकि वार्या तो खूब खूब देर तक लौटी ही नहीं. जब तक वह गायब रही, उस वाले अंकल ने एकार्डियन ख़रीद लिया था, और करस्तिल्योव ने भी ग्रामोफोन ख़रीद लिया था. ये एक बक्सा होता है, उसमें काली गोल गोल रेकार्ड रखी जाती है, वह गोल गोल घूमती है और म्युज़िक बजाती है – ख़ुशी का या दुख का, जैसा आप चाहें; यही बक्सा तो बज रहा था काउंटर पर. करस्तिल्योव ने कागज़ की थैलियों में बहुत सारे रेकार्ड्स भी ख़रीदे, और किन्हीं सुईयों के दो छोटे छोटे डिब्बे भी.
“ये मम्मा के लिए,” उसने सिर्योझा से कहा, “हम उसके लिए गिफ्ट ले जाएँगे.”
अंकल लोग बड़े ध्यान से देख रहे थे कि बूढ़ा इन चीज़ों को कैसे पैक करता है. और तभी सात समन्दर पार से वार्या आई और साइकल लाई. सचमुच की साइकल, स्पोक्स के साथ, घण्टी के साथ, हैण्डल के साथ, पैडल्स के साथ, चमड़े की सीट के साथ, और छोटी सी लाल बत्ती के साथ! उस पर लोहे की छोटी सी पट्टी पर, पीछे, नम्बर भी लिखा हुआ था – पीली पट्टी पर काले काले अंक!
“ये बढ़िया चीज़ आपकी होने जा रही है,” बूढ़े ने कहा. “हैण्डल घुमाईये, घण्टी बजाईये, पैडल दबाईये. दबाईये, दबाईये, आप सिर्फ उनकी ओर देख क्यों रहे हैं? तो? ये असली चीज़ है, कोई ऐसी वैसी नहीं है. आप हर रोज़ मुझे धन्यवाद दिया करेंगे.”
करस्तिल्योव ने बड़े प्यार से हैण्डल घुमाया, घंटी बजाई, और पैडल्स भी दबाए, और सिर्योझा लगभग डर से यह सब देख रहा था, मुँह थोड़ा सा खोले, जल्दी जल्दी साँस लेते हुए, मुश्किल से यक़ीन करते हुए कि यह सब दौलत अब उसकी होने वाली है.
घर वह साइकल पर आया. मतलब – चमड़े की सीट पर बैठकर, उसके प्यारे प्यारे गुदगुदेपन को महसूस करते हुए, डगमगाते हुए हाथों से हैण्डल पकड़े और फिसल फिसल जा रहे ज़िद्दी पैडल पर काबू पाने की कोशिश करते हुए. करस्तिल्योव लगभग दुहरा झुककर साइकल चला रहा था, उसे गिरने से रोक रहा था. लाल चेहरे से, और हाँफ़ते हुए. इस तरह से वह सिर्योझा को गेट तक लाया और उसे बेंच से टिकाकर रख दिया.
“अब ख़ुद सीखो,” उसने कहा, “तूने तो, दोस्त, मुझे पूरा पसीने से तरबतर कर दिया.”
और वह घर के अन्दर चला गया. सिर्योझ्का के पास फ़ौरन झेन्का, लीदा और शूरिक आ गए.
“मैं थोड़ी बहुत सीख भी गया!” सिर्योझा ने उनसे कहा. दूर रहो, वर्ना मैं तुम लोगों को दबा दूँगा!”
उसने साइकल पर बेंच से कुछ दूर जाने की कोशिश की और गिर पड़ा.
“धत् तेरे की!” उसने साइकल के नीचे से निकलते हुए हँस कर कहा, जिससे यह दिखा सके कि कोई ख़ास बात नहीं हुई है. “पैडल ठीक से नहीं घुमाया. पैडल पर पैर रखना बड़ा मुश्किल है.”
“तू जूते उतार दे,” झेन्का ने सलाह दी. “नंगे पैर ज़्यादा अच्छा रहेगा – उंगलियों से पैडल पर जमा रहेगा. मुझे दे, मैं कोशिश करता हूँ. मगर हाँ, पकड़े रहना.” वह सीट पर चढ़ गया. “कस के पकड़ना.” मगर हालाँकि उसे तीन तीन लोगों ने पकड़ रखा था, वह भी गिर गया, और उसका साथ देते हुए सिर्योझा भी गिर गया, जिसने उसे सबसे ज़्यादा कस कर पकड़ रखा था.
“अब मैं,” लीदा ने कहा.
“नहीं मैं,” शूरिक ने कहा.
“कैसी ख़तरनाक धूल है,” झेन्का ने कहा. “कहीं इस पर सीख सकते हो? चलो, वास्का की गली में चलते हैं.”
इस नाम से वे छोटी सी बन्द गली को पुकारते थे जो वास्का के बाग के पीछे थी. गली के दूसरी ओर एक लकड़ी का गोदाम था, जो ऊँची बागड़ से घिरा था. घुंघराली, नर्म नर्म, छोटी छोटी घास इस ख़ामोश गली में उग आई थी, जहाँ बड़ों की नज़रों से दूर खेलना बड़ा सुविधाजनक लगता था. और हालाँकि उस गली का बन्द छोर तिमोखिन के बगीचे से सटा था और दोनों माँएँ – वास्का की माँ और शूरिक की माँ – समान अधिकार से अपनी गन्दे पानी की बाल्टियाँ घुंघराली घास में उंडेलती थीं – मगर इस बात में किसी को भी शक नहीं था कि इस भाग पर पहला अधिकार वास्का का है; इसीलिए इस गली को वास्का का नाम दिया गया था. झेन्का साइकल को वहीं लाया. लीदा और शूरिक उसकी मदद कर रहे थे, इस बात पर बहस करते हुए कि उनमें से कौन पहले चलाना सीखेगा, और सिर्योझा पीछे पीछे पहिये को पकड़े हुए दौड़ रहा था.
झेन्का ने बड़े होने की वजह से यह घोषणा की कि पहले वह सीखेगा, उसके बाद सीखा लीदा ने, लीदा के बाद शूरिक ने. फिर सिर्योझा को थोड़ी देर सीखने के लिए साइकल दी गई, मगर फ़ौरन ही झेन्का ने कहा:
“बस! उतर नीचे! अब मेरी बारी है!”
सिर्योझा का साइकल से उतरने को ज़रा भी मन नहीं कर रहा था. उसने अपने हाथों पैरों से कस कर उसे पकड़ लिया और बोला, “मुझे और चलानी है! ये मेरी सैकल है!”
मगर तभी, जैसी कि उम्मीद थी, शूरिक ने उसे डाँटा,
‘उफ़, लालची!”
और लीदा भी जानबूझ कर बेसुरी आवाज़ में शामिल हो गई, “लालची-इलायची! लालची-इलायची!”
“लालची-इलायची” होना बड़े शर्म की बात है; सिर्योझा चुपचाप उतर कर दूर हट गया. वह तिमोखिन की बागड़ की ओर गया, और बच्चों की ओर पीठ करके रोने लगा. वह इसलिए रो रहा था, क्योंकि उसे बड़ा अपमान लगा था; क्योंकि वह अपनी ख़ुद की पैरवी नहीं कर सका था; क्योंकि इस समय पूरी दुनिया में उसे साइकल के अलावा किसी और चीज़ की ज़रूरत नहीं थी, मगर वे, बेरहम और ताक़तवर, इस बात को नहीं समझते हैं!
उन्होंने उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया. वह उनकी ज़ोर ज़ोर से हो रही बहस को, घंटी को और बार बार गिरती हुई साइकल की खनखनाहट को सुन रहा था. उसे किसी ने नहीं बुलाया, किसी ने नहीं कहा , ‘अब तू चला’, वे तीसरी-तीसरी बार चला रहे थे, और वह खड़े खड़े रो रहा था. अचानक अपनी बागड़ के पीछे से वास्का प्रकट हुआ.
वह प्रकट हुआ – कमर तक नंगा, खूब लम्बी लम्बी - बढ़े हुए साइज़ की – पतलून पहने, बेल्ट बांधे, कैप का कोना पीछे किए – ज़बर्दस्त, ताक़तवर व्यक्तित्व! एक मिनट देखा, बागड़ के पार से, और सब समझ गया.
“ऐ!” वह चीखा, “तुम लोग कर क्या रहे हो? सैकल किसके लिए ख़रीदी है – उसके लिए या तुम्हारे लिए? चल, आ जा सेर्गेई!”
वह बागड़ फाँद कर आया और उसने मज़बूत हाथ से हैंडिल पकड़ लिया. झेन्का, लीदा और शूरिक चुपचाप पीछे हट गए. कुहनियों से आँसू पोंछते हुए सिर्योझा साइकल के पास आया. लीदा फिसकने लगी.
“दो लालची!”
“और तू...पैरेसाइट कहीं की,” वास्का ने जवाब दिया. और उसने लीदा के बारे में और भी बुरी बुरी बातें कहीं. – “इंतज़ार नहीं कर सकती थी, जब तक ये छोटा बच्चा सीख लेता,” और उसने सिर्योझा को हुक्म दिया, “बैठ!”
सिर्योझा बैठ गया और देर तक सीखता रहा. और, सारे बच्चे उसकी मदद कर रहे थे, सिवाय लीदा के – वह घास पर बैठ कर घास के फूलों का हार बना रही थी और ऐसा दिखा रही थी कि उसे इन लोगों से ज़्यादा मज़ा आ रहा है जो साइकल चला रहे हैं. फिर वास्का ने कहा,
“अब मैं,” और सिर्योझा ने उसे ख़ुशी ख़ुशी साइकल दे दी; वह वास्का के लिए कुछ भी करने को तैयार था. फिर सिर्योझा ने ख़ुद, अकेले साइकल चलाई, और क़रीब क़रीब गिरा भी नहीं, बस साइकल डगमगा कर कहीं भी चली जा रही थी, और अनजाने में सिर्योझा का पैर पहिए में चला गया , और चारों की चारों स्पोक्स बाहर निकल गईं, मगर कोई बात नहीं, साइकल तो चलती ही रही. फिर सिर्योझा को बच्चों पर दया आ गई, वह बोला, “उन्हें भी चलाने दो. सब लोग एक एक बार चलाएँगे.”
पाशा बुआ बाहर आँगन में आई और उसे सड़क से सिर्योझा के रोने की आवाज़ सुनाई दी. गेट खुला, झुंड बनाकर बच्चे भीतर आए. सबसे आगे था सिर्योझा, वह हाथ में साइकल का हैंडल पकड़े था; वास्का फ्रेम उठाए था, झेन्का – दोनों पहिए, दोनों कंधों पर एक एक; लीदा – घंटी; सबसे पीछे था उछलता हुआ शूरिक साइकल के स्पोक्स की गड्डी उठाए.
“हे भगवान!” पाशा बुआ ने कहा.
शूरिक ने नीची आवाज़ में कहा, “ये उसने ख़ुद ने ही किया है. उसका पैर पहिए में फँस गया था.”
करस्तिल्योव बाहर आया और भौंचक्का रह गया.
“अच्छी हालत बनाई उसकी,” उसने कहा.
सिर्योझा गला फ़ाड़कर रो पड़ा.
“दुखी मत हो, दुरुस्त कर देंगे,” करस्तिल्योव ने वादा किया. “कारखाने में दे देंगे – नई जैसी हो जाएगी.”
सिर्योझा ने बस हाथ हिला दिया और रोने के लिए पाशा बुआ के कमरे में चला गया : करस्तिल्योव तो यूँ ही कह रहा है, जिससे मुझे धीरज बंधा सके; कहीं इन टुकड़ों से पहले जैसी ख़ूबसूरत साइकल बनाई जा सकती है? वो, जो चलती थी और घंटी बजाती थी, और धूप में जिसके स्पोक्स चमचमाते थे? नहीं हो सकता, नहीं हो सकता! सब ख़त्म हो गया, सब कुछ! सिर्योझा पूरे दिन दुखी रहा, ग्रामोफोन भी उसे ख़ुश नहीं कर सका, जो करस्तिल्योव ख़ास तौर से उसके लिए बजा रहा था. “गूंज रहे थे, खेल रहे थे तार! ऐसा हमने देखा पहली पहली बार!” – पूरी गली में रेकार्ड वाला बक्सा तैश में गाए जा रहा था, और सिर्योझा सुन भी रहा था और नहीं भी सुन रहा था, सिर्फ निराशा से सिर हिलाते हुए वह अपने ही बारे में सोचे जा रहा था.
...मगर, आप क्या सोचने लगे – साइकल सचमुच में दुरुस्त कर दी गई. करस्तिल्योव ने यूँ ही गप नहीं मारी थी. उसे सोव्खोज़ ‘यास्नी बेरेग’ के कारीगरों ने दुरुस्त कर दिया था. सिर्फ यह कहा था कि बड़े बच्चे इसे न चलाएँ; वर्ना वह फिर टूट जाएगी. वास्का और झेन्का ने उनकी बात मान ली, तब से सिर्फ सिर्योझा और शूरिक ही साइकल चलाते हैं, और हाँ, लीदा भी बड़ों से छुपकर चलाती है, मगर लीदा दुबली पतली है और ज़्यादा भारी भी नहीं है, चलाने दो उसे.
सिर्योझा अब बढ़िया साइकल चलाने लगा, पहाड़ी से उतरना भी सीख गया है – हैंडल छोड़कर, सीने पर हाथ रखे, जैसा कि एक बढ़िया साइकल चलाने वाले ने किया था. मगर न जाने क्यों सिर्योझा को अब अपनी साइकल होने की वैसी ख़ुशी नहीं हो रही थी, वैसी आकस्मिक उत्तेजना नहीं महसूस हो रही थी, जैसे उन पहले के कुछ ख़ुशनुमा घंटों में हुई थी...
और फिर जल्दी ही साइकल से उसका जी भर गया. वह किचन में खड़ी रहती थी और अपनी लाल लाइट और चांदी जैसी घंटी के साथ, ख़ूबसूरत और फिट, मगर सिर्योझा पैदल ही अपने काम के लिए चला जाता, उसकी ख़ूबसूरती के प्रति उदासीन: हर चीज़ से जी भर गया, क्या किया जाए! बस!