सिंह साहेब
सिंह साहेब
वे हर रोज़ आते। छड़ी के सहारे धीरे धीरे सावधानी से कदम रखते। हर रोज़ हाथ मे एक लाल गुलाब लाते और सोई हुई अपनी पत्नी के सफेद चाँदी जैसे बालों में लगा देते। फिर मेरी तरफ देख कर कहते ," इसे जुड़े में गुलाब लगाना बहुत पसंद है। मैंने इसे कभी गुलाब के बिना नहीं देखा।"
उनकी उम्र अस्सी साल की थी और पत्नी की अठहत्तर। मेरी ड्यूटी उसी वार्ड में रहती। पिछले दो महीने से उन बुज़ुर्ग का यही नियम देख रही हूँ। सब उन्हें सिंह साहेब बुलाते थे। मैं सोचती थी कि प्यार व्यार सब किताबी बातें हैं, किस्से कहानियों में पाए जाते हैं।मेरी साथी नर्स डेज़ी उनके आते ही जुमले कसने लगती- लो आ गए मजनूं बाबा। मुझे भी कई बार खीज आती थी उन पर।
मानसून शुरू हो गया था। और पहाड़ों की बारिश! तौबा- तौबा! आज सुबह से बारिश हो रही थी। डेज़ी बोली,"आज नहीं आने वाले मजनूं बाबा।" मैं मुस्कुरा दी। दरवाज़े की तरफ देखा तो सिंह साहेब एक हाथ में छड़ी और दूसरे में छाता लिए खड़े थे। आधे भीगे हुए! वे कांप रहे थे। मुझे गुस्सा आ गया। कुछ ऊंची आवाज़ में बोली," क्या ज़रूरत थी आपको ऐसे मौसम में आने की? कहीं फिसल जाते तो? इस उम्र में हड्डी टूटी तो जुड़ेगी भी नहीं ! दो महीने से लगातार आ रहे हैं, दो दिन नहीं आएँगे तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। आपको क्या लगता है कि हम इनका ख्याल नहीं रखते? अरे इन्हें तो पता भी नहीं कि आप रोज़ इन्हें खाना खिलाते हो, इनके लिए फूल लाते हो। सिंह साहेब ,ये आपको नहीं पहचानती। आप जानते हैं इनकी यादाश्त खराब हो गयी है।"
"लेकिन मैं तो नहीं भूला न सिस्टर। मैं तो पहचानता हूँ इसको। इसने मुझे ज़िन्दगी के साठ साल दिए हैं। मैं साठ दिन में ही हार मान लूं?"
सिंह साहेब मुस्कुराते हुए अपनी पत्नी के बालों से पुराना गुलाब निकाल कर नया गुलाब टांकने लगे। उनकी आंखों में छाई नमी देख कर मेरा मन भीग गया। खुद पर ग्लानि हो आयी। चुपचाप नर्स रूम में चली आई। दीवार पर टंगी भगवान की तस्वीर के सामने हाथ स्वतः जुड़ गए। मन से दुआ निकली-" जोड़ी सलामत रहे!"
जाते जाते फिर भगवान के सामने आई और बोली," सुनो भगवान जी, मेरे लिए दूल्हा ढूंढना--- तो सिर्फ... सिंह साहेब जैसा!