सब जग अपना

सब जग अपना

3 mins
242



साझा घर उन सभी का घर ‌था जिन्हें किन्हीं कारणों से उनके अपने घर से निकाल दिया गया था। यहां रहने वाले सब एक दूसरे के रिश्तेदार थे। उनका सुख दुख ‌सब कुछ साझा था।

साझा घर की मुखिया ‌सत्तर साल की आशा लता थीं। उन्हें घर में रहने वाले सभी दीदी कह कर बुलाते थे, उनके समव्यस्क भी। क्योंकी उनकी ‌ममता बड़ी बहन की तरह सबके लिए समान थी।

एक वक्त था जब आशा दीदी को उनके ही परिवार वालों ने त्याग दिया था। वह एक साधारण परिवार में जन्मी थीं। उनके अलावा उनकी दो छोटी बहनें और दो बड़े भाई थे। 

बेटियों में बड़ी होने के कारण पिता उनके ‌विवाह के लिए परेशान थे। पर आशा दीदी छोटे कद और सांवले रंग की थीं। शक्ल सूरत भी बहुत साधारण थी। अतः ‌कहीं उनके ‌विवाह की बात नहीं बन पा रही थी। आशा दीदी की उम्र बीस साल हो गई थी। उनसे छोटी उनकी चचेरी, ममेरी बहनों का ब्याह हो चुका था। आशा दीदी के पिता को चिंता सताने लगी थी । अब वह अपनी बाकी दो बेटियों को लेकर चिंतित थे।

इसी बीच आशा दीदी को चेचक निकल आई। जाते हुए ‌उनके चेहरे पर गहरे दाग छोड़ गई। अब तो घरवालों ने उनके ब्याह की बची खुची उम्मीद भी छोड़ दी। पिता इसी दुख में चल बसे। माँ पहले ही नहीं थीं। 

भाइयों ने बाकी की दो बहनों का ब्याह करवा दिया। पर अब आशा दीदी उनके लिए बोझ बन गई थीं। एक रात मर्यादा को ताक पर रख कर भाइयों ने उन्हें ‌घर से निकाल दिया। सबसे कह दिया कि अपनी मर्ज़ी से घर छोड़ कर कहीं चली गई।

आशा दीदी सड़कों पर भटकती फिर रही थीं। कभी इधर तो कभी उधर। समाज के असमाजिक तत्वों से खुद की रक्षा करते हुए। इस कठिन समय में किसी देवदूत की तरह हनुमत बाबा उनकी मदद को सामने आए। हनुमत बाबा सरकारी नौकरी से अवकाश प्राप्त थे। खुद का कोई परिवार नहीं था इसलिए सबको अपना मानते थे। अपने पुश्तैनी घर में उन्होंने एक आश्रम बनाया हुआ था। जहाँ कुछ बेघर लोगों को पनाह मिली थी। यह आश्रम आशा दीदी का भी घर बन गया। 

आशा दीदी मेहनती थीं। वह आश्रम के काम में हनुमत बाबा का हाथ बंटाती थीं। इस तरह वह आश्रम में रम गई थीं। लेकिन हनुमत बाबा ने एक बात पर गौर किया था। अपने खाली वक्त में आशा दीदी दुखी और उदास रहती थीं। वह इसका कारण जानते थे।

एक शाम अपने खाली समय में आशा दीदी उदास बैठी थीं, तब हनुमत बाबा उनके पास जाकर बोले।

"तुम दुखी रहती हो क्योंकी तुम्हारे अपनों ने उन्हें छोड़ दिया।"

"हाँ बाबा, मैं उनके व्यवहार को भूल ही नहीं पाती हूँ।"

"तो उन्हें भुलाने की कोशिश भी मत करो। तुम अब दूसरों को अपनाना सीखो।"

"मैं समझी नहीं बाबा।"

"तुम खुद को दूसरों की सेवा में लगा दो। जितना तुम दूसरों को अपनाओगी। उतना ही तुम्हारा अपना दुख कम होगा। एक दिन तुम अपने द्वारा त्यागे जाने का गम भूल जाओगी।"

आशा दीदी को बात समझ आ गई थी। वह पहले भी आश्रम के काम करती थीं। पर बाद में उन्होंने सेवा को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया।

कुछ सालों के बाद हनुमत बाबा सारी ज़िम्मेदारी आशा दीदी को सौंप कर चले गए। आशा दीदी ने उनके छोटे से आश्रम को साझा घर नामक संस्था में बदल दिया। 

अब उनके इतने अपने हो गए थे कि वह अपने परिवार के दुर्व्यवहार को याद भी नहीं करती थीं।


Rate this content
Log in