रक्षाबंधन का उपहार
रक्षाबंधन का उपहार
रक्षाबंधन का त्यौहार आने वाला था। इस साल महेश अपनी दीदी को अपने पैसे से उपहार देना चाहता था। पर वह क्या करें उसके पास तो पैसे ही नहीं थे। हर बार उसके पिताजी ही उपहार खरीद कर लाते थे जिसे वह अपनी दीदी को देते थे। जब से उसकी दीदी की शादी हुई तब से वह अपने को बड़ा समझने लगा था हालाँकि अभी वह चौदह साल का ही था। वह मन ही मन सोचने लगा कैसे करें पैसे कहाँ से लाए? महेश का एक दोस्त था सूरज। उसने अपने दोस्त से अपने मन की बात बताई। "सूरज इस साल मैं अपने दीदी को रक्षाबंधन में अपने पैसे से कोई अच्छा उपहार खरीद कर देना चाहता हूँ पर मेरे पास पैसे नहीं है, मैं पैसे कैसे कमाऊँ? सूरज बोला , "मेरे पास एक उपाय है, चलो हम लोग दातुन बेचकर पैसा इकट्ठा करते हैं, पास के खेत में बबूल के कई पेड़ हैं, दोनों मिलकर दातुन तोड़ेंगे और उसे अपने गाँव में बेचेंगे जिससे तुम्हारे पास पैसे हो जाएंगे। अगले दिन रविवार होने के कारण स्कूल की छुट्टी थी, इसलिए सुबह-सुबह दोनों दातुन तोड़ने चले गए। खेत में बबूल के पेड़ में हरी हरी डालियाँ दिखाई दे रही थी। दोनों दोस्त पेड़ में चढ़कर दातुन तोड़े और गाँव की तरफ बेचने चले गए। हरे हरे ताजे दातुन देखकर गाँव वाले उनके दातुन खरीद लिए। अब महेश बहुत खुश हो गया क्योंकि इस साल दीदी के लिए उपहार वह अपने पैसे से ही खरीद पायेगा। यह सोच उसने अपने दोस्त सूरज को गले से लगा लिया।
महेश की माँ त्यौहार की तैयारियों में लगी थी, घर में दो चार प्रकार के व्यंजन भी बना ली थी। घर आँगन साफ सुथरा और लिपा पुता दिख रहा था।
" महेश इस बार दीदी के लिए क्या लोगे, कल रक्षाबंधन है, आज अपने बाबूजी के साथ बाजार चले जाना और मनपसंद उपहार खरीदवा लेना । " माँ ने कहा।
"नहीं माँ मैं सूरज के साथ जाऊँगा, इस बार मैं खुद ही उपहार ले लूँगा। "
"अरे पैसे कहाँ से लाएगा। "
"मेरे पास है मेरे गुल्लक में। "
माँ अपने काम में फिर से व्यस्त हो गई।
महेश रक्षाबंधन के दिन सुबह से नहा धोकर ,नए कपड़े पहनकर तैयार हो गया। लिपे पुते हुए आँगन में माँ रंगोली भी बना ली। महेश दीदी का बेसब्री से इंतजार कर रहा था। आखिर उसकी दीदी, जीजाजी के साथ आ ही गई। दोनों को देखते ही महेश खुशी से उछल पड़ा। दीदी भी भाई को देख ख़ुश हो गई।
दीदी चौक चंदन पुर कर उसमें पीढ़ा रखी। आरती की थाल सजाई। भाई को पीढ़े में बिठाकर आरती उतारी तिलक लगाई राखी बाँधी और उसका मुँह मीठा कराई। उसके बाद महेश ने दीदी के हाथ में उपहार रख दिया। दीदी मुस्कुरातें हुई पैकेट खोली, तो उसमें एक चैन और दो छोटे छोटे झुमके मुस्कुरा रहे थे। दीदी ने पूछा, "ये तुमने लिया। " हाँ दीदी, अपने पैसे से लिया हूँ, अब मैं बड़ा हो गया हूँ न।
यह सुनकर दीदी की आँखें नम हो गई उसने भाई को गले से लगा लिया। हालाँकि वे गहने नकली थे पर उसके लिए ये उपहार हर बार के महँगे उपहार से भी ज्यादा कीमती थे।
अब माँ ने पूछा ,"बेटा सच सच बताओ, उपहार खरीदने के लिए तुम्हें पैसे कहाँ से मिले। "
तब महेश ने माँ को सारी बात बता दी। महेश की बात सुनकर उसकी माँ की आँखें भर आई और उसने बेटे को गले से लगा कर खूब आशीर्वाद दी।
