प्रिया अभी तक ज़िंदा है
प्रिया अभी तक ज़िंदा है
महरी अभी तक नहीं आयी। ग्यारह बज चुके थे। उसके आने के समय से एक घंटा ज्यादा। निधि परेशान हो,
दो-तीन बार बाहर तक देख आयी। सारा काम अब उसे ही करना पड़ेगा, सोचकर ही डर गई। अमन जब से कह रहे थे कि
एक से काम नहीं चलता, दो बाई रख लो। अगर एक न आये तो दूसरी के आने की उम्मीद रहे। तीन कमरों का घर अब
इस उम्र में महल से कम नहीं लगता। तीन कमरे और रहने वाले दो। ये तो मनु की ज़िद्द थी, इकलौती बेटी जो है,
जैसा कहती अमन, वैसा ही करते; यहाँ तक कि वो फिर निधि की भी नहीं सुनते।
एक कमरा गेस्ट रूम, एक आपका ' मम्मा' और एक ' पापा' का। पापा को देर रात तक टी. वी. देखना पसंद है,
वो भी लेटकर और मम्मा आपको पूरा पुस्तकालय साइड टेबल पर चाहिये, तो अब झगड़ा ख़त्म। अलग अलग कमरा कर
लो फिर एक-दूसरे से झगड़ा नहीं होगा। सही कह रही है मनु। निधि को अमन का देर तक टी.वी. देखना नहीं सुहाता,
क्योंकि उसे सोने से पहले कुछ पढ़ना होता है और पढ़ने के लिये शान्ति चाहिये। जब बड़ा घर चाहिये था, तब दो बेडरूम
सेट में रहे। आज जब दोनों अकेले हैं तब तीन कमरे। अमन के रिटायरमेंट के बाद, अब अपने इसी घर में रहना है,
हमेशा- हमेशा के लिये। मनु तो अब परायी है। यदा- कदा आठ, दस दिनों को आ जाती है। अब जब मनु अपने पति के
साथ दो वर्षों के लिये विदेश जा रही है तो सोच कर ही निधि का मन बैठा जा रहा है।
तभी महरी आ गई "क्या हो गया था राधा।. आज इतनी देर??"
कह - निधि ने राहत की साँस ली। राधा को देखते ही निधि का सारा गुस्सा काफ़ूर हो गया। चित्त से लेकर
ज़ुबान तक शांति पसर गई।
कुछ नहीं आंटी, चार नंबर वालों का बेटा शांत हो गया।
क्या- हाँ
आंटी, राधा अपने अंदर के अख़बार का पूरा पेज सुनाने को आतुर लगी। पूछने के पहले ही बताना शुरू कर
दिया।
बीस साल का बेटा था। दिन भर बिस्तर पर लेटा रहता था। न बोलता, न चलता, कुछ - कुछ समझता था।
कभी-कभी अपने आप हँसता भी था। इतना भारी कि पूछो मत। अंकल जी और आंटी जी पकड़कर चक्के वाली कुर्सी पर
बिठा उसे घुमा देते थे।
कल रात उसे बुखार हो गया था, खाना भी नहीं खाया। रात को ज़ोर-ज़ोर से साँस ले रहा था। अंकल जी ने डॉ.
को बुलाया, जब तक डॉ. आया, तब तक शांत हो चुका था। बड़ा कष्ट पाया सबने।
आगे की आवाज़ निधि के कानों को सुनायी देनी जैसे बंद हो गयी।
अरे आंटी, आप क्यों चेहरा लटका रही हो। अच्छा ही हुआ नहीं रहा। सबको ' मुक्त ' कर गया।
सच बताऊँ आंटी - जब चार नंबर वाली आंटी का सोचती तो बड़ा बुरा लगता था। लड़का और वो भी ऐसा.
बस चुप हो जा अब, काम पर ध्यान दे। निधि की आवाज़ की तल्खी राधा ने भांप ली और चुप हो
गई। निधि का फिर किसी काम में मन नहीं लगा।
दोपहर को अमन ने पूछा - ' ' निधि तुम वहाँ गई नहीं ? '.... नहीं मेरा मन नहीं हुआ। मन ना भी हो तो
भी वो हमारे पड़ोसी हैं, तुम्हें जाना चाहिये। ठीक है बाबा ! शाम तक चली जाऊँगी।
ये महानगरीय ज़िंदगी भी कितनी अजीब है। कहने को इस कैंपस में बारह ब्लॉक हैं, हर ब्लॉक में बारह
फ्लैट। कुल एक सौ चवालीस फ्लैट और एक ही कैंपस से सबका आना - जाना। एक ही सड़क मुड़कर पूरे बारह ब्लॉक
का चक्कर लगाती है। इनमें से हम कितनों से मिले नहीं, जानते भी नहीं। हम ' पड़ोस ' भूलने लगे हैं। पहले - पहल जब
अमन का ट्रांसफर होता, तो कई दफ़ा पड़ोसी कौतूहल से दरवाज़ा खोल झाँक लेते।
कभी-कभी उनके बच्चे बाहर आ जाते। एकाध जगह तो पड़ोसियों ने चाय-पानी भी भिजवाया और वो
चाय-पानी महज औपचारिकता न रहकर कब रिश्तों में तब्दील हो जाता, आजकल के पड़ोसी कहाँ समझ पायेंगे. वो तो
सोसाइटी की टेलीफोन डायरेक्टरी है तो नाम, पता ज़रूरत मुताबिक़ देख लेते हैं।
निधि ने हिसाब लगाया, उसे भी यहाँ आये डेढ़ वर्ष हो चुके। बमुश्किल चालीस से ज्यादा लोगों को वो नहीं
जानती। कितनों के नाम क्या सरनेम भी पता नहीं ; सिर्फ ब्लॉक नंबर याद रहता है। ऐसा लगता है मानो हम सब कैदी
की तरह ब्लॉक नंबर और फ्लैट नंबर की चिट चिपकाये घूम रहे हैं। शाम को निधि को चार नंबर ब्लॉक पहुँचकर, बोर्ड
में नाम ढूँढने की जरूरत नहीं पड़ी। घर के बाहर जूते- चप्पलों का जमावड़ा देख घर पहचानने में देर नहीं लगी।
सोच को विराम दे, चप्पल उतारकर निधि भी उस भीड़ का हिस्सा हो गई। जहाँ बहुत से लोग बैठे थे। लड़के
की माँ की " सूनी- तलाशती " आँखों से निधि ने उन्हें पहचान लिया। मानसिक और शारीरिक विकलांग था उनका बेटा।
उनके सामने बैठी महिला ने अधूरी बात का क्रम टूटने न दिया। कैसी-कैसी परेशानी उठायी। पता था, ठीक नहीं होगा पर
कोई अपने से तो मार नहीं सकता। अच्छा हुआ उसे 'मुक्ति ' मिल गयी। पता नहीं कौन से पाप किये थे बेचारे ने कि
ऐसा जीवन मिला। जितने लोग, उतनी बातें। कोई मुक्ति कह रहा था, कोई पिछले जन्म का कर्मफल। कोई उस माँ से
भी तो पूछे, जिसके लिये इन सब से हटकर वो उनका " बेटा " था। सिर्फ बेटा। जिसने तकलीफ़ पायी।
आगे का किस्सा सुनने में असमर्थ निधि उठ खड़ी हुई। लगा, अगर रुकी तो फिर अपने अंदर के समुंदर को
रोक नहीं पायेगी
कभी राधा ही चार नंबर वालों का हाल सुना देती कि आंटी उस कुर्सी को अभी भी रोज पोंछती हैं।
अंकल समझाते हैं आंटी को। निधि ऐसी बातें सुन अपने मन को वहाँ से हटा लेती। अमन ने सब निशानी हटा दी पर
आज भी डॉ. की फाइल और विकलांग सर्टिफिकेट फाड़कर, कहाँ फेंक पायी निधि भी।
एक शाम निधि नीचे टहल रही थी, तभी उसे मिसेज 'जोशी' मिल गईं. ' अरे निधि तुम? -- ' बड़े दिनों बाद दिखी.
हाँ आजकल घर के काम से ही थक जाती हूँ, तो घूमने के लिये नीचे उतरने का मन नहीं होता। तुम गयी थीं चार
नंबर?
निधि के 'हाँ' कहते ही वो बताने लग गयीं। अच्छा हुआ लड़का नहीं रहा. ऐसी औलाद किस काम की, जो माँ-बाप की
सेवा न कर सके उल्टे उनसे सेवा ले. भगवान ! ऐसी औलाद से बे-औलाद रखे। अरे कोई पाप रहे होंगे, तभी तो उनके
यहाँ 'ऐसा बेटा ' पैदा हुआ। निधि का मन हुआ कि वो मिसेज जोशी का मुँह नोच लेवें. उन्हें क्या पता कि कैसा लगता है
ऐसा सुनना।
बाहर से हम कितने भी चेहरे लगा लें पर हमारा असली चेहरा हमें पता होता है। मन की लहरें, पानी की तरह,
विचारों में गोते लगाती रहती है ; उसमें भीगने से कब तक बचा जा सकता है.
नासूर से खून रिसने लगा टप-टप- टप।
अमन निधि को अनमना देख, पास आकर बैठ गये। बगैर कहे सब समझ गये। निधि के हाथों को अपने हाथों
में थाम वो भी चुप थे। उन हाथों की गर्माहट से निधि के आँसू पिघल कर बहने लगे। अमन के कन्धे पर सिर रखकर
निधि फूट-फूटकर रोने लगी. उस क्षण अमन भी भींग गये थे, तभी उन्होंने निधि को चुप कराने का प्रयास नहीं किया. सच
है ख़ुशी कितनी भी हो, पर अंदर टिकती नहीं और दुःख सीधे आत्मा तक जाकर वहीं ठहर जाता है।
वर्षों से जिस जख़्म को अमन और निधि सीने में दबाये, भूलने की कोशिश करते रहे, लगता था ; वो सब भूल
चुके हैं। पर कहाँ सब गलत साबित हो गया। आज भी वो घाव वहीं गहरे हरे से हैं. बस मन की परतों के ऊपर से "
निधि आज से हम प्रिया का जिक्र नहीं करेंगे " ये वाक्य हटाने की देर थी। जैसे ही वो हटा, सब तरफ आँसू ही आँसू।
सब कुछ फिर याद आने लगा। अमन की सरकारी नौकरी। ज्यादा तो नहीं, पर्याप्त आमदनी थी. निधि और
अमन बेहद खुश थे. जब पहली बेटी हुई अमन बहुत खुश हुये. घर की रौनक थी मनु। तीन साल बाद दूसरे बच्चे के
आगमन की सूचना सुन पूरा परिवार बेटा होने की दुआ माँग रहा था। आखिर वंश चलाने के लिये एक वारिस तो होना
चाहिये।
दूसरी भी बेटी हुई। अमन खुश तो नहीं हुये, पर खुश दिखने की कोशिश जरूर की। सबकी सुनते-सुनते उन्होंने
भी कहीं मन में बेटे की चाहत बना ली थी। अमन और निधि ने जानबूझकर उसका नाम "प्रिया" रखा ताकि वो सबको
प्रिय लगे। कुछ दिनों में लड़का न होने का दुःख भूल सब सामान्य हो गये.
प्रिया बेहद कमजोर थी, रोती भी कम और इतने धीरे कि पास न हो तो सुनाई नहीं पड़ता। प्रीमैच्योर थी, समय
से पहले हो गई थी. इसीलिये " बायोलॉजिकल वीक " है. डॉ. ने बताया। हर दो घंटे में दूध देते रहें। अभी थोड़ा ज्यादा
ध्यान देना होगा, जब थोड़ी बड़ी होगी तब सब ठीक हो जायेगा. देखते-देखते चार महीने होने को आये. प्रिया अभी तक
हाथ-पैर नहीं चलाती, करवट बदल नहीं पाती। निधि को मनु की सब हरकतें याद आती। मन शंकित हो उठा, सुन अमन
भी चिंतित हो गये. फिर एक डॉ. से दूसरे, फिर तीसरे और बहुत सारे टेस्ट के बाद डॉ. ने स्पष्ट कर दिया "ये नार्मल नहीं
है" ये ठीक नहीं होगी. इसके लिये आपको इसकी विशेष देखभाल करनी होगी। ये ऐसे ही रहेगी। निधि और अमन की
ज़िंदगी की रफ्तार मानों थम सी गई।
न वह बोलती, न चलती, न सुनती। कभी-कभी लगता वो कोशिश कर रही है सुनने की, फिर पता नहीं। अमन
के स्कूटर की आवाज़ सुन उसका रोना एकाध क्षण को थम जाता। निधि खुश होकर सोचती शायद अब ये सुनने लगी है
पर बाद में सब पूर्ववत्। उसकी सभी क्रियायें बिस्तर पर होती। पूरा घर अंदर से अस्त-व्यस्त होने लगा था।
झाड़-फूँक, पूजा-पाठ, मंत्र-तंत्र, व्रत-उपवास जो जैसी सलाह देता, निधि और अमन सब कुछ करने को तत्पर रहते।
डॉ. के इलाज के साथ-साथ ये सब भी, विश्वास की डोर थामे करते रहे। मन को समझने का वक्त नहीं था और न
समझ। सुबह से देर रात तक ज़िंदगी, निधि को दौड़ा-दौड़ाकर थकाती रहती। निधि को कई बार लगता " कि ये सब
उसके साथ ही क्यों ??।......."
इसके चलते अमन अगला प्रमोशन नहीं ले पाये, लेकिन उसकी खुन्नस यदा- कदा निधि पर निकालते। तुम
सबके कारण ये प्रमोशन छोड़ना पड़ा। जैसे ऐसी बेटी जनने का सारा दोष सिर्फ निधि का हो।
उन दिनों घर बाहर जहाँ भी वो जाते, प्रिया के अलावा कोई बात नहीं। बाहर वालों की नज़रों में "तरस" का भाव
किसी भी क्षण यह भूलने नहीं देता कि वो अपाहिज, लाचार बच्ची की माँ है। उसकी एक नॉर्मल बच्ची भी है वो किसी
को याद नहीं।
जैसे-जैसे प्रिया बड़ी होती गई, निधि का घर से निकलना धीरे-धीरे कम हो, बंद हो गया. सुबह से प्रिया के नित्य
कर्म से फ़ारिग होते, घर संभालते कब शाम, कब रात हो जाती, पता ही नहीं चलता। बिस्तर पर जाकर लगता, अच्छा हुआ
आज ज़िन्दगी का एक और दिन बीत गया।
अमन की जरूरतें, मनु की पढ़ाई, स्कूल के लिये तैयार करना, भेजना और प्रिया के हर काम की जिम्मेदारी, सब
कुछ निधि पर। निधि को लगता वो अपने को भूलने लगी है, उसके अंदर की औरत के टुकड़े-टुकड़े हो रहे हैं। लेकिन हर
सुबह सब भूल नये सिरे से टुकड़ों में बँटने को पुनः तैयार हो जाती।
ऐसे में किसी ने सलाह दी मुम्बई ले जाओ,वहाँ बड़े-बड़े डॉ. हैं, कोई न कोई सुझाव मिलेगा। निधि और अमन
को यह बात जंच गई, उम्मीद की एक किरण दिखी, कहीं तो ठहराव चाहिये अब।
बात सिर्फ प्रिया की नहीं थी. मनु को कहाँ छोड़ें, वो स्कूल जाती है. उसे कौन तैयार करेगा, स्कूल कौन भेजेगा,
उसका ध्यान कौन रखेगा. अंततः अमन ने अपनी बहिन को राज़ी कर लिया। अमन के दोस्त के छोटे भाई मुम्बई में
रहते थे तो दूसरी समस्या भी हल हो गयी. प्रिया को सिर्फ गाय का दूध पचता था. डिब्बा-बंद दूध से उसे उल्टियां होती
थी. दोस्त के भाई ने गाय के दूध का बंदोबस्त कर दिया. लगा इस कार्य में ' ईश्वर ' भी साथ है। बहुत सारे टेस्ट से
गुजरने के बाद, डॉक्टर्स एवम् सामाजिक कार्यकर्ता के साथ अमन और निधि की मीटिंग हुई। मुख्य डॉ. से सिर्फ एक
प्रश्न पूछने की इजाजत थी बाकी सारी बातें दूसरे डॉ. बताने को बैठे थे.
शारीरिक एवम् मानसिक विकलांग सर्टिफिकेट के साथ, रेलवे कंसेशन पत्र, साथ ही समझाइश कि आपकी बड़ी
बेटी जो नॉर्मल है, उस पर पूरा ध्यान दीजिये. इस पर ध्यान दीजिये, लेकिन नॉर्मल को अनदेखा करके नहीं।
इसे " सेरिब्रल पैल्सि " है। ठीक होने की कोई संभावना नहीं। इसका आई. क्यू. चालीस प्रतिशत से कम है. ब्रेन
के बाकी हिस्से में पानी भरा है। थोड़ी शारीरिक क्रियायें इसे सिखाती रहें ताकि इसकी स्थिति बदतर नहीं हो पाये. यहाँ
प्रशिक्षण कार्यक्रम भी होता है अगर आप चाहें तो वो अटेंड कर सकती हैं।
निधि ने तीन दिन की ट्रेनिंग ली वहाँ। ऐसे बच्चों को कैसे सिखाना चाहिये। बोलना, चलना, बैठना, खाना,
दैनंदिन की सभी क्रियायें कैसे करायें, वगैरह सीखा।
पहली बार अमन निधि से लिपट कर रोने लगे थे। निधि ने समझाया, प्रिया को लेकर अब हमारी बाहर की
भाग-दौड़ ख़त्म। एक दिशा, एक रास्ता अब स्पष्ट है। निधि की मेहनत, देखभाल से, प्रिया थोड़ी बेहतर होने लगी। उसने
सालों बाद घुटने चलना शुरू किया. थोड़ी देर टिककर बैठ भी लेती। पकड़कर खड़ी हो जाती। लेकिन जैसे ही उम्मीद
बढ़ती, उसे ' दौरा ' पड़ता और निधि के सिखाने की सारी कोशिश धरी की धरी रह जाती। वो सब भूल जाती और वापिस
वहीं की वहीं आ जाती, जैसे पहले थी. दोनों बच्चों में उलझी निधि को लगता वो स्वयं मशीन बन गई है. यंत्रवत रोज
वही काम।
अमन भी फ्रस्टेशन के दौर से गुज़र रहे थे क्योंकि उनका साथी उनका बॉस हो गया था. जब पूरे परिवार को
संबल की ज़रूरत थी अमन खुद बाहर सहारा तलाश करने लगे थे। देर से घर आना, सिगरेट, शराब कब शुरू कर दिया
अमन ने, बाद में निधि ने जाना। एक " सेरिब्रल पैल्सि " पूरे परिवार की बीमारी बन गई।
सब जानकर, कुंठित मन से, अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना, पत्नी और माँ के बीच सामंजस्य बिठाना बहुत कठिन
होता जा रहा था निधि के लिये. लगता वो स्वयं रोगिणी हो रही है, चुक रही है। उसके क़दमों का हौसला अब दम तोड़ने
लगा है, लेकिन अगले पल " हार " नहीं मानूँगी सोच, निधि अपने कर्त्तव्य को करने जुट जाती।
उसके दिन-रात प्रिया की सेवा में गुज़रते चले गये। दोनों बच्चों को सँभालते- सँभालते कब वो और अमन दूर
होने लगे बाद में जाना। कोई भी पुरुष बिस्तर पर पत्नी को 'स्त्री' के रूप में देखना चाहता है, बच्चों की माँ के रूप मे
नहीं। निधि क्या करे. अपने पर ध्यान देने का वक़्त नहीं उसके पास। अमन क्यों नहीं समझते ये सब. मन व्यथित हो
जाता।
मनु भी बड़ी हो रही थी, वो कहीं बाहर जाने, घूमने की इच्छा करती तो अमन अकेले ही उसे लेकर जाते। उसे
माँ का जितना साथ मिलना चाहिये, उससे महरूम थी वो. मनु अब समझने लगी थी कि उसकी बहिन बीमार है, तभी
दिनभर बिस्तर पर लेटी रहती है। अब मनु भी प्रिया को दूध की बोतल लगा देती, उससे बातें करती, निधि के मन को
इतना सुकून काफी होता। कब मनु बड़ी बन गई, पता ही नहीं चला। अमन की बेरुखी, गुस्से से मनु कभी-कभी डर
जाती। पापा इतना गुस्सा क्यों होते हैं मम्मा ? निधि के पास इस प्रश्न का ज़नाब होने के बावजूद वो निरुत्तर रहती।
देखते-देखते दस वर्ष बीत गये. लगता मानों एक युग बीत गया। प्रिया आज भी दो साल के बच्चों जैसी थी
लंबाई मे। वजन भी बढ़ना उसका बंद था. निधि को लगता जैसे प्रिया जानती है कि उसकी माँ को 'अस्थमा ' है अगर वो
बढ़ेगी तो मम्मा उसे कैसे उठा पायेगी। लगता कोई आत्मिक रिश्ता है निधि और प्रिया के बीच। निधि के मन की
आवाज़ बगैर बोले वो सुनती और समझती है कई बार महसूस किया निधि ने।
आजकल प्रिया ज्यादा और जल्दी-जल्दी बीमार होने लगी थी। उसे दौरा जैसा पड़ता। अस्पताल में दो-चार दिन
भर्ती रहती, ड्रिप, दवाइयां, पीड़ा सह वह फिर घर लौट आती। फिर कई-कई दिनों तक सुस्त पड़ी रहती। अब ये क्रम
महीनों के अंतराल पर जल्दी होने लगा था। जब दौरा पड़ता तो लगता अब नहीं बचेगी। अमन कई बार गंगाजल पिला
चुके थे। निधि सहम जाती। इतनी सेवा करने के बाद भी प्रिया की तकलीफ़ कम होने का नाम नहीं लेती। अस्पताल से
लौटती पर और कमज़ोर होकर, ज़िंदा लाश की तरह। कई दिनों तक वो धीरे-धीरे कराहती, हमारी आवाज़ सुनती पर ठीक
से आँखें तक नहीं खोल पाती। इतनी पीड़ा इस मासूम को.......
कभी-कभी मन में आता काश ! इसे मुक्ति मिल जाये. तभी उसका उजला रंग, निश्छल चेहरा, उसकी तकलीफ़
देख निधि का मन उसे धिक्कारता। चारों तरफ पीड़ा ही पीड़ा, इस दुःख से निकलने का कोई छोर नहीं. ये कैसी अंतहीन
ज़िंदगी की राह पर निधि चलती जा रही है। जहाँ कोई रास्ता नहीं। तभी वो आँखें घुमा निधि को देखती, जैसे आश्वस्त
करती हुई कि सब ठीक हो जायेगा। ये कैसा नेह का आत्मिक बंधन है, जो उन दोनों को बांधे हुये है. निधि सब भूल
सोचती रह जाती।
इसी ताने-बाने में, देखते-देखते बारह वर्ष पूर्ण होने को आये. आजकल मनु अपनी पढ़ाई खुद से करने लगी थी.
अमन से कहती कि उसे पढ़ाये. मम्मा अकेले क्या-क्या करेगी. मनु के चलते अमन ने पीना कम कर दिया था. समय पर
घर लौटने लगे थे. ज़िंदगी राहत देने के रास्ते पर आ गई, ऐसा लगता था. प्रिया भी काफी समय से बीमार नहीं हुई.
निधि को लगा उसकी बारह वर्ष की तपस्या सार्थक हो गई। बीती कोई तकलीफ़ अब याद नहीं रही।
उस रात तीन बजे के करीब निधि की नींद खुल गयी, लगा प्रिया कराह रही है. क्या तकलीफ है समझा नहीं.
निधि ने तुरंत अमन को उठाया। 'प्रिया'-- आवाज़ देने पर वह महीन आवाज़ में रोने लगी. आत्मा का आत्मा से तार जुड़ा.
इसे अस्पताल ले चलो अमन कह निधि जल्दी-जल्दी उसका सामान तैयार करने लगी. अमन को भी जाने कैसा लाड़
आया था उस दिन प्रिया पर. दूध की बोतल ला स्वयं पिलाने लगे. जल्दी करो अमन, कहने पर अमन बोले भी- इसे ड्रिप
लगेगी और दो-तीन दिन इसे दूध नहीं मिलेगा। दूध पिलाकर चलेंगे.
जल्दी से डॉ. की फ़ाइल, उसके कपड़े वगैरह लेकर बाहर आ जैसे ही निधि ने उसे गोद में उठाया, एक हिचकी के
साथ उसकी गर्दन लुढ़क गयी.
उस एक "क्षण" में उसे इस पीड़ा से निज़ात मिल गयी. हमारी आत्मिक बातों की डोर काट सब बंधनों को
तोड़कर प्रिया चली गयी.
निधि का मन आज भी अपने से सवाल करता कि क्या प्रिया मीटिंग के उस एक सवाल को जान गई थी? "
इसकी ज़िंदगी कब तक है? " और डॉ. का जवाब था, बारह- तेरह साल ज्यादा से ज्यादा।
वर्षों बीत गये उसके जाने के बाद. एक युग जी लिये हम। पर क्या " वो कभी हमारे अंदर से बाहर निकल
पायेगी ? ? ?।........."