Sudhirkumarpannalal Pratibha

Others

3.2  

Sudhirkumarpannalal Pratibha

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परिवर्तन से परे

परिवर्तन से परे

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 तेज चलती हुई बस में एकाएक ब्रेक लगा । बस में बैठे सभी सवारी आगे की ओर झुक गए । अशोक भी आगे झुकने के बाद संभला , और अपने सीट पर व्यवस्थित होकर बैठ गया ।

"साब आपका स्टैंड आ गया..... कहां खोए हैं ? अशोक अचकचाते हुए बस की खिड़की से बाहर झांका,फिर प्रश्नभरी निगाहों से खलासी की ओर देखा,"यही रामगढ़ है भैया ? कहीं दूसरे रामगढ़ में तो नहीं लेते आए मुझे? कैमूर जिले में तो तीन रामगढ़ है।"

खलासी बोला , "नहीं साब , आपने रामगढ़ प्रखण्ड का रामगढ़ गांव बोला था । सो वही जगह है ।"

अशोक एक बार फिर प्रश्न भरी दृष्टि खलासी पर डाला और बोला , "यह तो गांव कहने को है , सबकुछ शहर की तरह दिखाई दे रहा है ।

" साब बहूत डेवलप किया है । रामगढ़ में तीन - तीन सिनेमा हॉल है ,.... यहां भट्ठी है....बीयरबार और चकलाघर भी है ।" यह कहते हुए खलासी आश्चर्य भरी निगाहों से अशोक की तरफ देखने लगा ।

अशोक झेंप गया, "आप मुझे ऐसे क्यों देख रहे हैं ?"           

खलासी अपने चेहरे पर हल्की मुस्कान लाते हुए बोला , " साब लगता है ससुराल आए है।.... नई नई शादी हुई है क्या ?........ पहली बार आए है ?"

" अरे नहीं भाई यह मेरा अपना घर है । मेरा जन्म भी यहीं हुआ है ।"

अशोक की अनभिज्ञता पर आश्चर्य करते हुए खलासी बोला , "आप भी महाने है साब अपना जन्म गांव भी नहीं पहचानते हैं ।"

अशोक खलासी को सफाई देते हुए बोला,"बहुत दिन बाद आ रहा हूं।....बहुत कुछ बदल गया है या यूं कहें की सब कुछ बदल गया है... पहले की तरह नहीं है।"

अशोक अपना सूटकेस मजबूती से पकड़ा और भीड़ को चीरते हुए बस से बाहर निकला... बस आगे बढ़ गई । अशोक चारों तरफ अपनी नजर दौड़ाई अनंत और शून्य के अलावे कुछ भी पहचान में नहीं आ रहा था ।

दूर से आते हुए एक्के पर अशोक अपनी नजर टिकाई "ऐ एक्के वाले भईया देवचन्द्र साह के घर चलोगे क्या ? "

"कौन देवचन्द्र साह का घर ?"एक्कावान पूछा।

"थाना के पीछे।" अशोक बोला।

" कवना बिरादर में ?"एक्केवाले ने प्रश्न से आलोक पूरी तरह झेंप गया ।

लेकिन घर जाने की जल्दी के लिए वह बताना हीं उचित समझा," भईया तेली बिरादर में।"

"हां तो ऐसे कहिए ना , कि चमटोल के बगल वाले तेलियाना में जाना है।... दस रूपया लगेंगे ।"

एक्कावान यह कहते हुए अपने घोड़े के गर्दन को सहलाने लगा ।

अशोक मूक सहमति देते हुए एक्के पर बैठ गया ।

 " चल रे रामखेलावन अर ---र--- र--रे--इ का किरीन फुटला से पहले ही , तीन किलो राधा रहिला दिए थे ।.... खा के हजम कर दिए का ? नेतवन की तरह खा- खा कर डकार भी नहीं मारता । चलबे की दी हीं दू - चार हुर्रा।"                                 

घोड़ा चलने लगा

अशोक चारों तरफ देख रहा था । वह कुछ भी पहचानने का असफल कोशिश कर रहा था । एक्कावान कभी घोड़े को हुलहुलाता और कभी पीछे मुड़कर अशोक को देखता।

अशोक बेखबर चारों तरफ नजर दौड़ा रहा था । तभी उसके कानों में आवाज गूंजी," ए साब आप क्यों इतना बकना रहे हैं ।......पहली बार आए हैं क्या ? एह गांव के दमाद है क्या ? "

" न....न.... ना एह गांव का हम बेटा हैं। काफी दिनों बाद आए हैं ।" अशोक घबड़ाते हुए बोला ।

एक्कावान अपने घोड़े का पूछ हिलाकर तेज चलने के लिए उकसाया । घोड़ा सरपट दौड़ने लगा ।

एक्कावान बेफिक्र होकर गाना गाने लगा ।

दुख के दिन भी टल जाला

पल में लागे बाजन बाजे ।

सब हाथ में बा उनकर जो

पर्वत कैलाश बिराजे ।।

अशोक एक्कावान को बीच में ही रोका, पीछे मुड़कर एक्कावान अशोक की ओर देखने लगा । "का...ह ...साब... कितना बढ़िया गाना कढ़ाएं थे । "

अशोक पूछा, "भइया कौन सी बस्ती है ? "

अरे साब , इ बाबुसाहब लोग की बस्ती है....देख नहीं रहे हैं । बड़की- बड़की बिल्डिंग कोई भी बाबू साहब लोग ऐसा नहीं है, जो पांच सौ बिगहा से कम जोतता है।"

" इ बाबु साहब कौन होता है.... जो बाबु भी है साहब भी है ।" अशोक अपना मुंह खोलकर उसपर अपना हाथ रख लिया ।

"साब आप कहते हैं कि हम इस गांव के बेटा है और। बाबुसाहब को नहीं जानते है, बाबु साहब, बबुआन,राजपूत, क्षत्रिय,जो भी कहे।.... साब दिल्ली के गद्दी पर केहु राज करे,लेकिन गांव के गद्दी पर बबुवाने लोग राज करते हैं। जिसको चाहें उजाड़ दे , जिसको चाहें बसा दे....और जानते है , साब नान्हन के पंचायती बबुवाने लोग करते है।"

एक्कावान की बात को काटते हुए,अशोक बोला, "जिस बबुवान के पास चल अचल सम्पत्ति कुछ भी नहीं होता वह भी, गांव पर राज करता है,और जिस नान्ह के पास चल और अचल सम्पत्ति ज्यादा है वो ?"

एक्कावान बोला,"आप गांव की माटी में जन्म लिए हैं , और कुछ भी नहीं जान रहे हैं । अरे, राजा राजा होता है चाहे वह कंगाल हीं काहे नहीं हो। नान्हन के पंचायती बड़का नहीं करे तो नान्ह माने पर तैयार नहीं होंगे । बबुवान जो पंचायती कर देंगे उसे अगर कोई ना माने तो जबरदस्ती मनवाना भी जानते हैं । "

"हां साहेब, सीधी उंगली से घी नहीं निकलेगा , तो टेढ़ी तो करनी ही होगी न।"एक्कावान बोला।

अशोक बात बदला," तुम्हारा नाम क्या है ? "

"जी जंगली मुसहर।"

"कहां घर है ?

"अइजे है साब....मुसहर टोल में ।"

"एक्का किसका है ?"

 "भाड़ा पर है....रोज पचास रूपये.....घोड़े को खाना हम ही देते हैं ।"

"कितने बच्चे हैं ?"

"आठ बेटे हैं साब।"

 "स्कूल जाते हैं?"

 "अरे ! साब हमहन के बेटा स्कूल कइसे जाएगा, महटर भगा देता है, कहता है , 'नहा धोकर आओ,...... एक दो बार, बड़ा वाला लड़का गया,फिर नहीं गया।

"अब वह क्या करता है ?"

"सूअर है बीस ठो,उसी को चराता है ।"

"तुम रोज कितना कमा लेते हो ?"

"यही कोई डेढ़ सौ के आसपास , पचास रूपये एक्के का भाड़ा , पचास रूपये का दारू चढ़ाते है और बाकी लुगाई को देते है, खर्चा आराम से चलता है....सब ऊपर वाले की दया है।.... अ....हां लिजिए साब आपका ठीहा आ गया।मैं नहीं जानता कि कौन है देवचन्द्र साह..... अईजे से तेलियान शुरू होता हैं.... केहुए बता देगा।"

अशोक एक्कावान को पैसा थमाया।और अपना सूटकेस लेकर आगे बढ़ा । गांव के अदभुत बदलाव से वो दंग था,अभिभूत भी था।उसे समझ में नहीं आ रहा था कि, इन अट्टालिकाओं के बीच में उसकी झोपड़ी कहां है । जहां पर उसने अपना बचपन गुजारा था।

अशोक आगे बढ़ता जा रहा था , ना वो किसी को पहचान रहा था,ना हीं उसे कोई पहचान रहा था। वह मकानों से अपना ध्यान हटाया , और बगल के पोखरे की ओर बढ़ा। पोखरे की पीड़ पर कुछ लोग बैठे थे । कुछ दूरी पर एक बहुत बड़ा पीपल का पेड़ था।पीपल का छांव और हवा दोनो से हीं अशोक का पुराना सम्बंध था।वह चाहता था की कुछ देर वहां बैठकर मंद-मंद हवा के झोंकों को महसूस करें । लेकिन हवा की वो ताजगी और खुशबू उसे नहीं मिल पाई। पोखरे के पानी से बास आ रही थी । वह जब छोटा था , तब घंटों इस पेड़ के नीचे पीड़ पर गुल्ली - डंडा , ओल्हवापताई, आइस- बाइस बच्चो के साथ खेला करता था । आज उसी पेड़ के नीचे जमावड़ा है। असामाजिक तत्वों का गजेड़ीयों का, जुवाड़ीयों का .....अश्लील बातें करते मूंछवाले नामर्दो का। खेलने वाले बच्चे नदारद थे । पीपल की सारी पत्तियां झड़ चुकी थी । वहां बैठा नहीं जा रहा था । वह उठ खड़ा होता है । अब वह बिना पूछे घर जा सकता है ।पोखरे और पीपल के पेड़ से उसके यादों की एक झलक मिल गई थी । वह बिना पूछे घर की ओर चलने लगा। टूटी-फूटी पगडंडी भी अब अपना अस्तित्व खोते जा रही थी । वह पगडंडी छोड़कर कच्ची सड़क पर आ गया । रास्ते में एक बूढ़ा व्यक्ति अशोक से पूछा , " ए बचवा कहां घर बा नया - नया कुर्ता पजामा पहिन के कहां जातला आगे हचाड़ बा.. कुल बिगड़ जाई "    अशोक उस बूढ़े व्यक्ति का जवाब दिए बिना , आगे बढ़ा, अपना घर देखने को बेताब था।लेकिन खराब रास्ते के वजह से आगे बढ़ना नामुमकिन सा हो गया। वह लौटकर आया और उस बूढ़े से पूछ , "बाबा ! इस गांव का मुखिया कौन है?"

"अरे बचवा, का पूछत बाला,केहू बनता ता पहीले आपन बनावे के फेर में पड़ जाता , बड़का बनल ता ऊहो डकारे के फेर में पड़ल, छोटका बनल त ऊ खखाइले बा । कागजे... आ....फाइल में योजना का श्रीगणेश होता और पूर्ण आहुति भी कागजे में हो जात बा।"

बुढ़ऊ एक ही सांस में बोल गया।

अशोक आश्चर्य करते हुए पूछा , "आप लोग विरोध नहीं करते हैं, वोट करते हैं। मनपसंद प्रत्याशी चुनने की स्वतंत्रता होती है , तो आप सभी को हक है, अपनी मांग को धरातल पर लाने के लिए मुखिया पर दबाव बनाने का।"

"गऊंवा का पढ़लका लइकवा इहे कहेलसन....आ जब लाम लेबे के होला त पहिले भाग जाला सन।"

बूढ़ा बाबा अपनी बात कहकर मुस्कुराने लगे

अशोक बातों में उलझना नहीं चाहता था , वह बात बदलते हुए बूढ़े व्यक्ति से जाने के दूसरे रास्ते के बारे में पूछा । बूढ़ा अपने घर के पिछवाड़े से होकर जाने वाले सकरी गली के बारे में बताया 

वह बूढ़े व्यक्ति द्वारा बताए गए सकरी गली से होते हुए अपने घर पहुंचा । घर जिसको वह नहीं पहचानता था , जिसमें अपना बचपन गुजारा था।उस घर की एक -एक ईंट उसे पहचानती थी । काफी दिनों के बाद आया था । बरसों बीत गए थे । घर छोड़कर गए हुए।

अशोक बंद दरवाजे के सामने लगी कुंडी खटखटाई। एक बूढ़ी औरत ने दरवाजा खोलने से पहले कराहते हुए पूछा, " कौन ?"

आवाज में दर्द था..... उदासी थी । अशोक बोला,"म ... म .. मैं... अशोक ।"

बुढ़िया दरवाजा खोली । दरवाजा खोलते हीं बुढ़िया अशोक से लिपट गई।" बेटे मेरे लाल वर्षो गुजर गए...तुम्हारी राह ढूंढते -ढूंढते....अब तो मेरी आंखे भी पथरा गई है....कम दिखाई दे रहे है "

अशोक की आंखों से आंसू छलक पड़े । वात्सल्य प्रेम से लबालब भरी मां अशोक को अंक में भरकर पीठ थपथपा रही थी।अशोक की आंखों से अश्रुधारा वहने लगा। मां से लिपट कर उसे अकल्पनीय और असीम सुख की अनुभूति हुई । वह अपने अतीत में खो गया ।

वह जब छोटा था , बाबूजी काफी क्रोधी और कड़े मिजाज के थे । छोटी-छोटी गलतियों पर भी डांटते और मारते थे । मां, सुरक्षा कवच बन कर सामने खड़ी हो जाती । बाबूजी के जाने के बाद मां उसे अंक में भरकर पुचकारती, थपथपाती, सहलाती जबतक कि उसे नींद नही आ जाती।बाबूजी के मार का दर्द छूमंतर की तरह उड़ जाता ।

बूढ़ी मां अशोक से बोली," बेटा तुम तो सफर से आए हो । .....थक गए होगे । मैं तुम्हारे लिए अभी गरम रोटी और दाल बनाए देती हूं। तबतक तुम कुल्ला-मुखारी करके स्नान कर लो । "

अशोक अपनी मां को अपलक देख रहा था । मां का शरीर पूरी तरह से झूल गया था । हड्डियां मांस छोड़ चुकी थी। चमड़े सिकुड़ गए थे।....

अशोक मां के आदेश का पालन करते हुए मुंह हाथ धोने गाड़ा के पास चला गया । गाड़ा देखते हीं पुरानी यादें पुनः ताजी हो गई ।..... दादा जी नहर में छिरहिरा लगाते थे, खूब सारी मछलियाँ जब फंस जाती थी , तो घर लाकर इसी गाड़े में मछलियों को रख देते थे। हफ्ते भर मछलियां बनती । मछली भात की मिठास अविस्मरणीय थी । दादा जी बड़ी मछलियों के बड़े शौकीन थे।मझले दादाजी और छोटे दादाजी भी छिरहिरा लगाते थे । छिरहिरा को लेकर तीनों दादाजी में जमकर झगड़ा भी हुआ, उसके बाद से दादा ने छिरहिरा लगाना हीं बंद कर दिया।

दादा जी फौजी से रिटायर होकर आए थे। ढेर सारे मेडल भी लाए थे। देशभक्ति उनमें कूट - कूट कर भरी थी। दादाजी के पिताजी स्वतंत्रता सेनानी थे। अकेले अपने दम पर अंग्रेजों के दांत खट्टे किए थे । दादाजी के बाबूजी ने बड़े शौक से गांव में ही पच्चीस बीघा जमीन में स्कूल बनवाने के लिए दिए थे ।

अशोक ने सोचा क्यों न खा पीकर स्कूल और स्कूल के बगल में बने परदादा और परदादी के आदमकद मूर्ति को देखें ।

वह मन हीं मन काफी खुश था । हाथ मुंह धोकर कपड़ा बदला। चापाकल का ठंडा पानी , बचपन में इसी ठंडे पानी से नहा धोकर तारोताजा हो जाता । शहरों का टंकी का पानी ,न ठंडई और ना ही मिठास, मिनरल वाटर, हॉट वाटर, कुल वाटर सारे के सारे कृत्रिम , बनावटी लेकिन जीने के लिए पीना पड़ता है ।

अशोक अपनी जन्मभूमि पर आकर आश्चर्यचकित था। मन में ,भरपूर उल्लास था। लेकिन उसके सामने एक समस्या थी । वह अपने परदादा के नाम पर बनी स्कूल को देखने जाना चाहता था । लेकिन कैसे ? बचपन का साथी कोई मिल जाता तो , अच्छा होता । वह अपनी मां से पूछा,"मां, मेरे बचपन के दोस्तो में से कोई यहां पर है क्या?

मां , कुछ देर सोचने के बाद बोली कि , "हां बेटा, बसरोपन का लडका धनरोपना है।"

धनरोपन शब्द अशोक के कान में पड़ते ही उसकी बांछे खिल गई, और वो पुनः एकबार अपने पुराने दिनों में खो गया । गजब की स्फूर्ति उसके शरीर में थी। खेल का वह हीरो था । गुल्ली - डंडा, आइस- बाइस , चोर - सिपाही, टिल्लो , भुंडिश , कितकित, ओक्का-बोक्का,कबड्डी आदि,खेलो का वो नम्बर वन खिलाड़ी था। चुटकियों में वो सारे बच्चों को हरा देता। धनरोपन अशोक का लंगोटिया दोस्त था।

अशोक धनरोपन के घर चल पड़ा । रास्ता पूछते - पूछते धनरोपन के घर पहुंच गया। धनरोपन दालान में मचिया पर बैठकर सनसुतरी कात रहा था । धनरोपन अशोक को पहचान नहीं सका । परिचय देने पर वह पहचान गया । धनरोपन अपलक अशोक को निहारने लगा ,और अशोक के गले से लिपट गया, तथा बैठने के लिए माचीयां दिया और खुद बोरे पर बैठ गया।

धनरोपन घर में आवाज लगाया," मलकइनिया मीठा पानी लाओ, मेरा यार आया है।"

धनरोपन और अशोक आपस में बातें करने लगे। तभी धनरोपन की औरत गुड़ और पानी लाई ।वह नाक के नीचे तक घुंघट सरकाई हुई थी। धनरोपन अपनी पत्नी से घुंघट हटाने के लिए कहा । और बोला की," ये तुम्हारे देवर जी लगेंगे।" अशोक धनरोपन की पत्नी का पैर छूआ,वह आशीर्वाद दी" माथे मउर चढ़े ।"और अशोक के पीठ में चिकोटी काटकर बिना घुंघट हटाए घर में चली गई।अशोक मंद - मंद मुस्कुराने लगा। वह गुड़ पानी पिया । गुड़ की मिठास ने पुनः आकर्षित किया । और धनरोपन से बोला, "ऐसा गुड़ शहरों में नहीं मिलता ।..... इस गुड़ की मिठास काबिले तारीफ है।"

धनरोपन बोला," शहरों में चलानी गुड़ मिलता है ।..... यह गुड़ घर का है ।..... ईख की खेती हम किए थे ।...बगल के कोल्हुवाड़े में मेरा ही ईख पेरा रहा है । चलोगे तो चलो गरम-गरम गुड़ का पपरा ,और ईख का रस पिलाऊंगा।"        

अशोक धनरोपन के साथ चलने को राजी हो गया। रास्ते में दोनों बातें करते हुए कोल्हुवाड़े पहुंचे। वहां धनरोपन ने उसे गरम-गरम गुड़ का पपरा और रस पिलाया ।

इसके बाद अशोक धनरोपन से बोला ,"मेरी प्रबल इच्छा है कि , मैं अपने परदादाजी के नाम पर बना स्कूल देखूं ।..... शिक्षक और बच्चों से मिलू।....अपने परदादा जी के पुण्यतिथि को मैं बच्चों के साथ मनाऊं , क्योंकि आज वही दिन है । उनके मूर्ति पर जाकर माथा टेकु तथा उनकी वीरता की कहानी बच्चों से सुनूं ।.... मुझे अपने पूर्वजो पर गर्व है।..वहां जाने की इच्छा प्रबल होते जा रही है ।.... दादाजी हमें रोज परदादा और परदादी के मूर्ति के पास ले जाते थे । ... दादा जी और मैं घंटो प्रार्थना करते।"

धनरोपन भी अपना काम बंद करके परदादजी के पुण्यतिथि में शरिक होने के लिए विद्यालय चलने के लिए तैयार हो गया।वह अपनी कल्पनाओं में डूबते - उतराते हुए आगे बढ़ते जा रहा था । उसका पैर आपरूप बढ़ते जा रहे थे । समय भारी हो जाता है ।.... दूरियां बढ़ने लगती है। अशोक को कुछ ऐसा हीं एहसास हो रहा था । गांव - गांव ना होकर अब शहर बनने की असफल प्रयास कर रहा था। रास्ते में अशोक इधर- उधर देखते जा रहा था । कुछ लोगो के घर के ऊपर एंटीना लगे हुए थे । कुछ लोगों के घर में तेज आवाज में टेप बज रहे थे। नए - नए युवा लड़के कम दाम वाले जींस और टीशर्ट पहनकर रास्ते में चल रहे थे।अशोक इन सब दृश्यों को देखते हुए आगे बढ़ रहा था।

अशोक धनरोपन से बोला , "मुझे यह देखकर बड़ी खुशी हो रही है कि , गांव भी शहरों के संस्कार को अपना रही है ।.... अगर घिसी - पिटी संस्कारों से निजात मिल जाए, तो गांव स्वर्ग हो जाएगा। लेकिन यह देखकर दुख हो रहा है, कि शहरों की नकल करते - करते शहर की अश्लीलता भी नकल हो रही है,जो कि गांव के हित में नहीं है। क्योंकि गांव का समाज एक सभ्य समाज होता है। मर्यादाएँ उसके हिमोग्लोबिन में है , लेकिन आज मैं जो देख रहा हूं, मुझे खुद पर विश्वास नहीं हो रहा है। तेज आवाज में बजता हुआ , भोजपुरी अश्लील दोअर्थों वाले गाने को लोग बड़े चाव से सुन रहे है ।"

अशोक गाने को अनसुना करते हुए , साउंड बॉक्स से आगे निकला।

धनरोपन अशोक से बोला , "यहां के लड़के अपना पैसा खर्च करके, पूरे गांव के लोगों को गाना सुनाते हैं, गांव भी मजबूर है । मुकश्रोता बनी रहती है ।"

अशोक धनरोपन से पूछा , " क्या मां-बाप भी नहीं रोकते , ऐसे गाने बजाने वाले बच्चों को ?"

धनरोपन बोला,"डरते है ।"

"अरे बाप रे ! "एकाएक अशोक के मुंह से निकल पड़ा ।

अशोक गांव के इस रूप को देखकर आश्चर्यचकित था लोगों के भीतर बदलाव से वह मायूस और परेशान हो गया। अशोक और धनरोपन अपना पैर तेजी से बढ़ाने लगे । कुछ दूर जाने के बाद खुले वातावरण में दोनों सांस लिए , तथा राहत महसूस किए।

धनरोपन अशोक के चेहरे को भाँप गया । वह व्यंग्य कसते हुए बोला," शहर के लोग सुकुवार हो जाते हैं। तुम भी सुकुवार हो गए हो। एक जमाना था , जब तुम्हारा देह शीशा की तरह चमकता था । पहलवानी में तुमसे हाथ मिलाने की कोई हिम्मत नहीं करता था। आज तो साउंड बॉक्स की तेज आवाज भी नहीं बर्दाश्त कर रहे हो ।"

आशोक धनरोपन के बातों को जवाब देना उचित नहीं समझा । वह धनरोपन के साथ आगे बढ़ गया। रास्ते भर अशोक गांव की दशा और दुर्दशा देख देखकर आवक था। लोगों का उटपटांग खड़ी हिंदी बोली , भोजपुरी में अंग्रेजी मिक्स बोली । लड़कों के लंबे-लंबे बाल, मूंछ मुड़े हुए । एक कान छिदे हुए । मुंह में गुटखा, पान.....सिगरेट के धुएं का छल्ला फेंकते हुए नौजवान। खो... खो.... खो.... करते हुए बूढ़े लोग। एक दूसरे की शिकायत करती हुई औरतें, जाति सूचक शब्दों का धारदार प्रयोग। फारवर्ड बैकवर्ड ऊंच नीचे का अभेद्द दीवार ,बड़का - छोटका, अमीर- गरीब...... मुंह में गालियों का तकिया कलाम, इंसानियत और मनवता की एक - दूसरे की बीच में कमी। दारू पीकर बक-बक करते हर उम्र के लोग ।..... शेखी बघारते गिरे लोग।...  

अशोक ढूंढ रहा था । वह बगीचा जिसमें जाकर खूब फल खाता , बसहटा बिछाकर घंटों लेटा रहता...पढ़ता। ....

वो झूला जिसपर वह और उसके ढेर सारे दोस्त एक साथ बैठते । गांव की लड़कियां जो झूलों पर पटेंग मारती और सावनभर गीतों से अपना गांव गुलजार करती                                                  

हरी - हरी चूड़ियां लहरदार बा

गटवा मोर उघार बा ना

जबसे चूड़ियां ना लियइबा.....

जैसे गीत सुनने को कान तरस गए थे । कानों में रस घोलने वाले वो सदाबहार सुमधुर लोकगीत इस गांव से दूर भाग गए है,गाय के गले की घंटी की आवाज, कुएं पर बाल्टी की आवाज, खेतों में गीत गाती औरतों की आवाज , आंगन से उठते शगुन के गीतों की आवाज , चइता , बिरहा आल्हा, फगुआ की आवाज, सब के सब दब गए हैं , खत्म हो गए हैं। फिर ये गांव, गांव कहां रहे , गांव शहर भी तो नहीं रहे।

जब दादाजी थे, तो द्वार पर फागुन के पूरे एक महीने तक फगुआ गवाता था । असीमित आनंद की अनुभूति होती थी । अशोक फाग कढ़ाता और झाल मजीरों के साथ गिरधारी काका घोटाते।अशोक उस समय सैकड़ों फगुआ याद किया था । चइता , अल्हा, बिरहा का भी वह मास्टर था।

फगुआ में तो अशोक की दादी गोबर घोलकर सब पर विशेषकर देवर पर डालती । कोई भी बुरा नहीं मानता , और कुछ देर बाद, अशोक से गुझिया की भरी परात भजवाती।और सबलोग गुझिया खा-खाकर पूरे गांव , ढोल मजीरा के साथ गांव घूमते , नाचते गाते और सभी घरों के पकवान खाते।अशोक मन हीं मन अतीत की बातें सोचते हुए आगे बढ़ रहा था।

धनरोपण को चुपचाप अशोक का यूं चलना अच्छा नहीं लगा।वह तेज आवाज में अशोक से पूछा," अरे यार क्या सोच रहे हो ?"

अशोक अचकचाया बोला," अरे यार कुछ भी नहीं बस यूं ही ।...... अच्छा ये बताओ, फगुआ , चइता , आल्हा अब गांव में गवाता है या नहीं ?"

धनरोपन लापरवाह की तरह जवाब दिया,"यार किसके पास समय है , सब अपनी रोजी-रोटी की तलाश में हैं , अब वो सब पुरानी बात हो गई । जो की गांव के इतिहास के पन्नो में हीं है । गांव में तो अब कुश्ती भी नहीं होता ।..... पचइयां (नागपंचमी) के दिन कुद्दी, चिक्का, कबड्डी आदि भी अब नहीं होता। ....यार पेट में अनाज नहीं रहेगा तो, क्या ये सब अच्छा लगेगा ?.....अब तो नए लड़के भूल भी गए हैं , कि ये सब भी कोई खेल था , जो पचाइयां को खेला जाता था। पचाइयां को तो अब झूला भी नहीं पड़ता। झूला पड़ेगा भी कैसे , न बगीचा है , न हीं डोर।.....कुएं पर पानी अब थोड़े हीं कोई खींच रहा है ।..... आजकल की लड़कियों को सावन का गीत तक याद नहीं , ना हीं किसी को पटेंग मारने आएगा।"

अशोक को धनरोपन की बात सुनकर बहुत अफसोस हुआ ।वो बोला,"बरसों पहले भी तो लोगों के पेट में भात नहीं था । लोग कठिन परिश्रम करते , सुबह से लेकर शाम तक हरवाहा(हलवाहा), हर (हल) जोतता , शाम को बैलगाड़ी पर जाता , बाजार से थोड़ा बहुत सामान लाता जिससे सब परिवार के लोगों का आधा पेट भी नहीं भरता ।... फिर भी अपनी परिपाटी ग्रामीण संस्कृति को वो पूरी जोश- खरोश, दिलोजान से निभाते ।.... तनिक भी कोताही नहीं करते ।....आज का युग टेक्नोलॉजी का हो गया है। न हरवाहा है न हर बैल न हीं पैना।...अब तो बलगाड़ी भी नहीं मिलेगी...देखने के लिए भी।.... लेकिन जानते हो धनरोपन उस आधे पेट वाले अनाज में जो शक्ति थी ।वो आजकल की विटामिन से भरे फलों में भी नहीं है । आज के अनाज में खाद है यूरिया है और ये सारे मनुष्य के हिमोग्लोविन में पहुंच गया है ।....सब कमजोर और कामचोर हो गए हैं । ...यह यूरिया खाद का ही फल सबको मिल रहा है ।सबमें बदले की भावना प्रबल हो रही है । गुस्सा , चिड़चिड़ापन , अपनत्व, स्वार्थ, बढ़ते जा रहा है । एक- दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लगी हुई है । दिखावा ज्यादा हो गया है । लोग धनबल का प्रदर्शन कर रहे हैं। आदमी, आदमी के बीच अभेद्द खाई पैदा हो गई है । एक जमाना था , जब गांव में बेटी ब्याही जाती थी, तो हर घर के लोगों की जिम्मेदारी बेटी के बाप की जिम्मेदारी से कम नहीं होती थी । और तबतक , जबतक की बेटी ससुराल नहीं चली जाती थी । ....कोई बराती को पानी पिलाता, तो कोई बिस्तर तैयार करता।....कोई द्वार पूजा की तैयारी करता।.... उस समय गांव के लड़के गांव में से बिना किसी से पूछे बांस काटते, माड़ो बनाते और उसे सजाते।"

अशोक की बात सुनकर धनरोपन बोला , "अब तो लोग मरने के बाद टिकठी के लिए भी बांस नहीं देते हैं।..खरीदना पड़ता है ।"

धनरोपन की बात सुनकर अशोक रोष में आ गाया था। बोला,"कितना बदल गया है संसार,... कितना बदल गया है गांव ।.....गांधी जी बोले थे ,'भारत की आत्मा गांवों में बसती है'.... आज गांधीजी की आत्मा ये परिदृश्य देखकर रोएगी।... इस खिचड़ी गांव में अब कुंए पर बाल्टियों का खड़खड़ाना,गाय के गले की घंटी की आवाज, पायल की रुनझुन की आवाज , .... नहीं सुनाई देती। बच्चे, चोर- सिपाही, गुल्ली - डंडा , लट्टू, ओक्का -बोक्का, गोट्टी आदि ग्रामीण खेल नहीं खेलते। नीरस और उदास लगते हैं , ये गांव ।"

धनरोपन बोला,"तुम्हारे जाने के बाद से हीं ये लुप्त होने लगे थे।..अब पूरी तरह से लुप्त हो चुके हैं।"

अशोक बोला,"चिउरे की मिठास मुझे याद है।... मखंचू बो भौजी अपने घर से ढेकी में का कूटा हुआ हरे धान का चिउरा लाती थी ।....अब तो वह भी नहीं मिलेगा।.... जादूवाईन बो चाची का सजाव दहि और औटाया हुआ... गाड़ा में का दूध का लाल मट्ठा, नया भात के साथ,जो मिलता था गांव में ...वो भी तो लगता हैं अब नहीं मिलेगा ।"

धनरोपन बोला,"चुरा भी मिलेगा , दूध भी मिलेगा लेकिन अब सब मशीनी हो गया है । वह मिठास खत्म,वो ढेकी , वो गाड़ा,सब खत्म।पहले माटी का घर था।दलान और रसोई में गाड़ा था । धरन में सिकहर था , जिसमें मक्खन और दूध रखे जाते थे।....हमारी मां निगस्ता में झूला डालकर झूला देती,ताकि गोहरऊरा का जन्म छूट जाए।अगला जन्म छछुन्नर का न होने पाए।...हमारी मां हर परिपाटी का पालन करती ।...कैसा था वो दिन कितना अच्छा था वो दिन...अब तो यांदों में हीं रह जाएंगे।"

अशोक धनरोपन की बात सुनकर मूक सहमति दी , और दोनों आगे बढ़ते गए।....

धनरोपन अपने उंगली से इशारा करते हुए अशोक को दिखाया कि,"वह देखो,आशोक तुम्हारा विद्यालय जिसके भूमिदाता तुम्हारे परदादा जी थे।.. उन्होंने उस समय शिक्षा के प्रति कितना अलख जगाया था। इसी विद्यालय की देन हैं की हम भी साक्षर हो गए।लेकिन अब वो विद्यालय......?"

अशोक धनरोपन से बोला,"रुक क्यों गए।...अपनी अधूरी बात पूरी करो।"

धनरोपन बोला,"चलकर देख लो,....मै क्या बताऊं?"

अशोक और धनरोपन विद्यालय के पास आ गए ।... अशोक फुले नहीं समा रहा था । बरसों का सपना आज सच होने वाला था । वह मन बना चुका था , जैसे दादाजी किए थे , वो भी दादाजी के लीक पर चलते हुए विद्यालय को अपने सामर्थ्य के अनुसार आर्थिक मदद करेगा और बच्चों को पुरस्कृत भी करेगा ।

अशोक और धनरोपन विद्यालय के पारिसर में आ चुके थे । विद्यालय में मध्याह्न अवकाश हो चुकी थी। कुछ बच्चे खाना खा रहें थे। कुछ खेल रहें थे ...अशोक अपने पुराने दिनों में चला गया।वह भी घर से बोरा और टिफिन और स्लेट पेंसिल आदि लेकर पढ़ने आता था।..... काश! वह बचपन पुनः लौटकर आ जाती। यह कल्पना मात्र है।यह वैज्ञानिक सत्य भी है।ऐसा कभी नहीं हो सकता। बचपना लौटकर नहीं आता ।वह तुरंत अतीत से बाहर निकला।

अशोक धनरोपन के साथ स्कूल के दूसरे तल्ले पर चढ़ गया। वहां मास्टर और मास्टराइन आपस में हंस-हंसकर बातें कर रहें थे।अशोक को यह देखकर गुस्सा भी आया।

वह जब छोटा था तो। गुरूजी लोग बच्चों को पहली शिक्षा अनुशासन का हीं देते थे।...आजकल के गुरूजी लोग तो खुद हीं अनुशासन हीन है।...तो बच्चे.. कैसे होंगे...?

अशोक नहीं चाहता था की वो बार - बार अतीत में जाए। लेकिन जहां अतीत के प्रमाण मौजूद होते है ,उस जगह पर यू वर्तमान पर अतीत हावी रहता है।

अशोक जब विद्यार्थी था,उस समय जब छुट्टी होती थी,तो बस्ता बोरा लेकर भागते और भागने के क्रम में बच्चे काफी तेज आवाज में 'छुट्टी' चिल्लाते।..यही सब अशोक को अतीत की यादें कभी- कभी,गुदगुदाती और उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान आ जाती।

जब बारिश होती तो खुशी से सारे बच्चे झूम उठते।उस समय विद्यालय में छत नहीं था। नारिया और खपड़े का छाजन था। नारिया और खपड़े टूट जाने के वजह से हल्की बारिश में भी पानी गिरने लगता ।और छुट्टी हो जाती। खुशी इतनी मिलती मानो जेल से छूटे होंजब गुरूजी पहाड़ा गिनवाने को बोलते हैं तो बच्चे पंद्रह और बीस का पहाड़ा काफी तेज आवाज में गिनवाते हैं।अशोक भी ऐसा हीं करता,मगर ऐसा क्यों करता है,उसे खुद हीं पता नहीं या तो शैली अच्छी होगी या फिर पंद्रह का पहाड़ा छुट्टी होने का पीली झंडी और बीस का पहाड़ा हरी झंडी होगी।अशोक की मां उसे हर साल हीं पुराने कपड़ा का बस्ता सिलती है,जो सालभर के बाद फट जाता था ।

धनरोपन अशोक को झझोड़ा ," यार तूम कहां खो जाते हो ? मास्टर साहब तुम्हारा परिचय पूछ रहे हैं । अशोक अचकचाया,"अ... अ... हां.... क्या ?" अशोक, मास्टर साहब के काफी करीब पहुंच गया ।

"जी मैं रामदास राम का पड़पोता , श्री श्यामरथी साह का पोता और श्री देवचंद्र प्रसाद का बेटा हूं।...मेरे परदादा यह विद्यालय बनवाए थे। इस विद्यालय के पीछे परदादा और परदादी की मूर्ति है और पत्थरों पर उनके नाम और उपलब्धि गुदे हुए है।....मैं भी इस विद्यालय में अनुदान देना चाहता हूं।और अपने दादाजी और पिताजी के नाम पर कुछ और भवन बनवाना चाहता हूं । अव्वल बच्चों को पुरस्कृत भी करना चाहता हूं । "

"कैसी मूर्ति... कहीं कोई मूर्ति नहीं है । आपके परदादा रामदास राम जी को तो मैं जानता भी नहीं । श्यामरथी साह और देवचंद्र प्रसाद का भी मैंने कभी नाम नहीं सुना....। "मास्टर साहब लापरवाही से जवाब दिए।

अशोक पुछा," मास्टरसाहब आप इस विद्यालय में कितने दिनों से है। "

अशोक की बातें सुनकर मास्टर साहब मुस्कुराए और अपनी तलवार कट मूंछ पर ताव देकर बोले,"देखते नहीं हैं, मेरी मूंछ और दाढ़ी पक गई है।"अशोक मास्टर साहब का व्यवहार देखकर झेंप गया।

खुद को सामान्य अवस्था में लाकर बोला," मास्टर साहब,मेरे पूर्वज इस विद्यालय की बुनियाद रखे है।.....यह विद्यालय जहां पर खड़ा है, वह जमीन मेरी हैं।"

"होगी..... हमलोग क्या जानते है?" मास्टर साहब बेफिक्री से जवाब दिए।

अशोक, मास्टर साहब से फिर प्रश्न किया,"यह विद्यालय तो मेरे परदादा के नाम से है?"

मास्टर साहब बोले,"नहीं तो, फाइलों में भी कहीं इसका प्रमाण नहीं है।"

"लेकिन इस भवन के पीछे बनी मूर्ती तो उन्ही का है.... जो दो मूर्ति बनी हुई है।वह मेरे परदादा और परदादी का है।"अशोक मास्टरसाहब से बोला।

"मूर्ति... कैसी मूर्ति ...मै कुछ समझा नहीं।"अशोक मास्टरसाहब से मुंह लगने के बजाय धनरोपन को लेकर विद्यालय के पीछे की तरफ जाने लगा और कहां ,"धनरोपन, तुम भी कभी इधर नहीं आए थे क्या ? "

धनरोपन बोला," मैं तो जबसे पढ़ाई छोड़ा हूं । इधर कभी नहीं आया हूं । "

अशोक तेजी से विद्यालय के पीछे की तरफ बढ़ते जा रहा था , धनरोपन भी तेजी से अशोक के चाल में चाल मिलाकर आगे बढ़ रहा था। कुछ ही देर बाद पेशाब की गंध आने लगी। अशोक अपने नाक पर पैकेट से रुमाल निकाल कर रखा। धनरोपन भी हाथ से नाक को ढका और बुदबुदाया, "इस विद्यालय में सफाई नाम की कोई चीज नहीं है । कुव्यवस्था का प्रतीक बन चुका है, यह विद्यालय। तभी सामने से एक औरत आती नजर आई। देखने से लग रहा था कि , वह औरत विद्यालय की शिक्षिका है । वह औरत कुछ अजीब नजरों से देख रही थी।

अशोक बुरी तरह से झेंप गया ,"आप ऐसे क्यों देख रही हैं ?"

"आप लोग कहां जा रहे हैं " वह औरत पूछी।

अशोक बोला,"बस, यूँ ही मैं आगे जा रहा हूं।"

"आगे कुछ भी नहीं है ।" वो औरत बोली।

 "कुछ भी नहीं .... क्या मतलब है?"अशोक आश्चर्य से पूछा।

"आगे औरतों का शौचालय है...और उसके बगल में औरतों का हीं बाथरूम है।.....लेकिन ये शौचालय स्कूली बच्चियों और शिक्षिकाओं के लिए हिं हैं।...... पुरुष का शौचालय विद्यालय के पूरब साइड में है।...वो औरते अशोक से बोली , "बाहरी व्यक्ति को अलाऊ नहीं है।....आप कौन है?"

अशोक शिक्षिका की बात को अनसुनी करते हुए , घनरोपन के साथ आगे बढ़ा।

अशोक का जी सन्न से हो गया।....उसके पैरो तले की जमीन खिसक गई।वह अपने दिमाग पर काफी जोर दिया।उस अच्छी तरह से याद हैं..... जहां पर महान स्वतंत्रता सेनानी रामदास राम जो कि अशोक के परदादा जी लगते थे।आज उनकी प्रतिमा अस्तित्वहीन हो चुकी है।और उसके जगह पर शौचालय बना है।अशोक मुड़कर अपनी परदादी की प्रतिमा को तरफ दौड़ा,"अरे ये क्या?उसके अपनी परदादी की प्रतिमा के बदले महिला बॉथरूम है।

अशोक इस दृश्य को देखकर आगबबूला हो गया।उसका खून खौल उठा। उसके पांव फूल गए। वह अपलक उस शौचालय को देखता रहा तभी एक बच्ची आई और अंदर जाकर काफी तेज दरवाजा बंद की ..... खट....।

अशोक की तंद्रा विचलित हुई वह विद्यालय से जल्दी निकलने के लिए पलटा।और तेज कदमों से विद्यालय के परिसर से बाहर निकला । अशोक थक चुका था। वह तेज हांफ रहा था लेकिन रुका नहीं । वह अपने घर की ओर तेज कदमों से बढ़ने लगा। उसके मन मस्तिष्क में क्रोध की ज्वाला भड़क रही थी।.... घृणा हो गई थी,इस विद्यालय से यहां के लोगो से व्यवस्था से, संस्कार से...।

धनरोपन अशोक के पीछे -पीछे आ रहा था।अशोक चुप था।न चाहते हुए भी अशोक के जेहन में, बाबूजी , दादा और परदादा की याद आ - जा रही थी।बाबूजी ने बहुत छोटे पर हीं अशोक को रटा दिया था।

शहीदो के मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले ।

बतन पर मरने वालों का यहीं कायम निशा होगा।।

अशोक से बाबूजी कहा करते थे की,"वतन पर शहीद होने वालो की कीर्ति अमर होती है। ..लेकिन आज पता चला अमर भी अमर नहीं होता। ...अमरत्व की भी मौत होती है।आज वह रास्ते भर अपने पुरखों की कमाई की समीक्षा करते हुए घर आ रहा था।

उसके पुरखों की आत्मा क्या सोचेगी?....क्या से क्या हो गया?यह समाज कैसा है।मानसिकता यहां के लोगो का कैसा है?..... भूलना और अपमान करना यहां की फितरत है।... कृतघ्नता सभी के हिमोग्लोबिन में है।आज विद्यालय के नाम से विद्यालय की रसीद कटती है।कभी उसके परदादा के नाम से राशिद कटती थी। . सबकुछ खत्म हो गया। सबकुछ बदल गया । अशोक को इस गांव से एवं वहां के लोगों से घृणा होने लगी।...अशोक को सारे लोग गिरगिट नजर आ रहे थे।

परिवर्तन संसार का नियम है,यह शाश्वत सत्य है। सार्वभौमिक सत्य है,आध्यात्मिक सत्य है,सामाजिक सत्य है, वैज्ञानिक सत्य है, भौगोलिक सत्य है। लेकीन इतना परिवर्तन....अशोक समझ नही पा रहा था ।वह अंतरद्वंद में फंसा तेज कदमों से घर की तरफ बढ़ रहा था।...धनरोपन भी अशोक से कदम से कदम मिलाकर चल रहा था।... धनरोपन अशोक से विदा लेकर अपने घर की तरफ चला गया।..अशोक अपने घर में प्रवेश किया।

अशोक की मां अशोक का बेसब्री से इंतजार कर रही थी।अशोक के हृदय में एक अमिट हुक था,दुख था, कसक था, दर्द था, तड़प और उदासी थी।अशोक अपने मां से लिपट गया। अशोक को उसकी मां अंक में भर ली।अशोक के आंखो से अनवरत,अविरल, आंसू बह रहे थे।आंतरिक दुख और तकलीफ से भरा अशोक मां की गोद में तृप्ति का अनुभव कर रहा था।...उसे सुख और सुकन का अनुभव हो रहा था।अशोक को ऐसा लग रहा था की वह युगों पहले बचपन में मां के अंक में छुपकर,जो अनुभव किया था।आज भी बिलकुल वैसा ही अनुभव अशोक को हो रहा था। युगों बाद भी ऐसे अपरिवर्तित अनुभव से वो बशीभूत और आश्चर्यचकित था। मां के वात्सल्य प्रेम, शाश्वत सार्वभौमिक और वैज्ञानिक सत्य से परे है।

वो मन के साथ काफी देर तक लिपटकर आंसु बहाता रहा । मां सबकुछ बदल गया है।.. यहां तक की मेरे परदादा और परदादी का पवित्र प्रतिमा का रूप भी।...इस परिवर्तन से कुछ भी अछूता नहीं।...इस परिवर्तन के चक्र का मै भी एक हिस्सा हूं। मुझे इस गांव से बिल्कुल शिकायत नहीं है।विद्यालय प्रशासन ,सरकार, छात्र, छात्राओं तथा शिक्षक -शिक्षिकाओं से भी नहीं। मुझे उस मिस्त्री से भी कोई गिला नहीं है।जो मेरे पुर्वजो के प्रतिमा के जगह पर शौचालय बना डाला। आदेशदाता से भी कोई शिकायत नहीं है।जो प्रतिमा तोड़ने और शौचालय बनवाने का आदेश दिया।और विद्यालय पर से परदादा का नाम हटवाने का आदेश दिया। क्योंकि स्मृतियां मरती भी है।... नाम गुम हो जाते है।जेहन से पुराने चीज का जाना और नए चीज का आने का क्रम लगा रहता है।...इसी क्रम का मै भी एक हिस्सा हूं।.....सब हिस्सा है।अमर की भी मौत होती हैं।...समय के साथ ।अशोक के नेत्रों से अश्रुधारा अनवरत बहते जा रहे थे।

अशोक मां से बोला, "मां, आज मैं ये अनुभव किया हूं,गलती किसी की नहीं होती है ।.... परिस्थितियां गलत करवाती है।परिस्थितियां समय की उपज है। समय बदलता है। परिस्थितियां अपना रूप बदलती है।....इस आश्चर्य जनक बदलाव के पीछे परिवर्तन का नियम और समय का योगदान है।अमर कुछ भी नहीं होता।"

मां अशोक के आंखो से आंसू पोछते हुए बोली,"तुम्हारे पहले वाली आदत बिलकुल हीं नहीं गई है।..बात - बात में, छोटी छोटी बातों में आंसू बहा देते हो...अगले हीं पल मुस्कुराते हुए मुझसे लिपट जाते हो ।

मां की बात सुनकर अशोक पुनः एक बार मुस्कुराते हुए मां से लिपट गया।और बोला," मां आदत है बदलती नहीं है।"

मां बोली,"आदत भी बदलती है बेटा।"

"हां , आप ठीक कह रही है,लेकिन जब मुझे आप अंक में भरती है तो पहले वाला बच्चा हीं तो हो जाता हूं।" अशोक बोला।

"मां के लिए एक बेटा कभी बड़ा नहीं होता,वो हमेशा बच्चा हीं होता है।"अशोक की मां अशोक से बोली।

अशोक अपनी मां से बोला की, " मां, मै अब इस जगह पर एक पल के लिए भी नहीं रहना चाहता हूं।मैं चाहता हूं ,

मेरे साथ आप भी चलिए। मुझे आपके वात्सल्य प्रेम की जरुरत है। जो की परिवर्तन से परे है।"

अशोक के बचकाना बातो से मां के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थिरक आई बोली,"बेटा! मां का स्नेह तो हमेशा ही अपने बेटे के साथ रहता है।...तुम मेरे स्नेह से कभी भी परे न हो।मेरे पास जिम्मेदारियां है,इस घर में दीपक जलाने का...खेत खलिहान का हिसाब रखने का...मेरे ना रहने पर कौन करेगा ?".... तुम शादी कर लो । तुम्हारे बच्चे होने पर , मैं जरूर तुम्हारे पास आऊंगी, और कुछ दिन रहूंगी।...मेरे मरने के बाद ये जिम्मेदारियां तुम्हारे ऊपर आएगी.... पुश्तैनी जिम्मेदारियों से कोई विमुक्त नहीं हो सकता।जबतक कंठ में प्राण है मुझे ये सब जिम्मेदारियां उठानी पड़ेगी।...तुम जाओ।"

अशोक मां के बातों को टाल नहीं सकता था।वह अकेले हीं आया था,और अकेले ही जा रहा है।अशोक अपना सुटकेस तैयार करता है। कपड़े पहनता है। मां रसोई में जाकर जल्दी -जल्दी खाना बना देती है।

अशोक सबकुछ छोड़कर मां का लबालब भरा स्नेह,और रास्ते का भोजन लेकर निकल पड़ता है। मां उसे तबतक अपलक निहार रहीं होती है। जबतक की अशोक ओझल नहीं होता हैं।


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