पक्षियों की महफ़िल
पक्षियों की महफ़िल
चाची की छत पर आज पक्षियों और गिलहरियों ने किटी पार्टी का आयोजन किया था। चावल तो रोज उन्हें छत पर मिलता ही था । आज की उपलब्धि विशेष थी, क्योंकि सूरजमुखी का फूल जो खिल गया था। चतुर सुजान तोते किसी अनुभवी की तरह सभी को टींटीं करते हुए सूचना दे रहे थे । खिल गया,खिल गया। जिसका इंतजार था वह खिल गया। गिलहरियों के कान खड़े हो गए क्योंकि जहाँ वे रहती थीं , उन्हीं को पता न हो,ऐसा कैसे हो सकता है। वह तो उनका अपना घर ही था । उन्होंने चावल का दाना अपने हाथ में लेकर खाते हुए पूछा क्या खिल गया ? बुलबुल बोली सूरजमुखी का फूल खिला है । देखना तोतों की मौज हो गई अब तो । इन्हें तो सूरजमुखी के बीज खाने में बहुत मजा आता है। तभी पड़कुलिया बोली मुझे तो खीर-पूड़ी खाने में अच्छी लगती है। पता नहीं क्या-क्या खाते हैं लोग ? गिलहरी तंज करते हुए बोली बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद ? अच्छा तुमने मुझे बंदर कहा। पड़कुलिया अपने पंख फड़फड़ाते हुए उसके ऊपर झपटी।
...." अनपढ़ होने का यही नुकसान है। पढ़ें- लिखों के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाते।" तोता किसी ज्ञानी पंडित की तरह टिटियाया।
...." अच्छा पंडित महाशय आपने मुझे अनपढ़ कहा..."
....." अरे नहीं -नहीं अपनी इतनी हिम्मत कहाँ जो आपसे कुछ कह सकें। देखिए मेरी बात का वह मतलब नहीं था जो आपके द्वारा समझा गया है। यानि ...मेरी बात को तोड़- मरोड़ कर समझ रही हैं आप। बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद एक लोकोक्ति है जिसे हम बात चीत में प्रयोग किया करते हैं।" तोते ने रटारटाया वाक्य दोहराया।
गिलहरी ने इस वादविवादी अवसर का उठाया और चावल खाने की स्पीड दोगुनी कर दी। सभी ने एक स्वर में कहा।
" हम तो हर चीज खा लेते हैं अमरूद के पेड़ पर अमरूद लगेंगे। अनार पर अनार लगेंगे ।अंगूर पर अंगूर लगेंगे ।
जब ये सब पकते हैं.। हमारी तो मौज आ जाती है। अब देखना तोते तो बाद में खाएंगे सबसे पहले तो हम ही भोग लगा लेंगे। मौका देखकर अवसर का लाभ लेने वाले तोतों को तो डूंड़ भी खाने को नहीं मिलेगा।"
.... गिलहरी की बातें सुन सभी खूब जोर-जोर से हंसने लगे। तभी कबूतर आया और चावल का एक दाना उठाते हुए उसने गुटूर गू करते हुए कहा। " बहुत हंसी आ रही है सबको। आज का प्रोग्राम क्या है ? किस चीज के लिए आज पार्टी कर रहे हो?"
...."बस ऐसे ही मन किया कर ली ।.धूप नरम हो गई है। पानी भी हल्का-फुल्का बरस रहा है। .मौसम देखो कितना सुहाना है । चावल तो मिल ही रहा है" । गिलहरी अपनी गर्दन ऊँची करते हुए आँखें मटकाती हुई कहने लगी।
....कबूतर ने कहा ," हाँ बहन चावल तो मुझे भी बहुत पसंद है । भला हो चाचा जी का जो हमारे खाने -पीने का ध्यान रखते हैं। वरन् इस मंहगाई के जमाने में कौन किसकी खबर रखता है। बोलो भला ...।
"
....तभी गिलहरी बोली.." क्या खाक ध्यान रखते हैं? मालूम है चावल इंसानों को पसंद नहीं आते तो वे हमें खिलाते हैं । इनकी जो काम वाली है ना उसको मुफ्त का चावल मिलता है । वह लाई बनाने वालों को पंद्रह किलो बेच देती है। जब चाची जी को यह बात पता चली कि भीमा की मम्मी चावल बेच देती हैं तो उन्होंने उसे बुलाकर कहा।
" भीमा की मम्मी! चावल कितने रुपए किलो बेचती हो ? तो वह बोली बीस रुपए में एक किलो दे दूंगी। वैसे लाई बनाने वाले पंद्रह रुपए किलो सब तुलवा ले जाते हैं। फुटकर नाय बेचती ,पर कोई बात नाय भाभी ...तुम्हारे लें बीस रुपया में एक किलो दे जाऊंगी। "
"फिर क्या है चाचा साहब बीस रुपए किलो के हिसाब से हर महीने पाँच किलो चावल हमारे लिए मंगा लेते हैं । तुमको तो पता होगा ना पहले बाजरा खाने को मिलता था । अब कितने दिनों से चावल खा रहे हैं।" गिलहरी ने तंज का पासा फेंका....।
पड़कुलिया बोली," हमें सब मालूम है अकेले-अकले ही टूंगने की आदत है सो चाहे जितने ऐब निकाल लो । चावल तो देवताओं का भोजन है। वह तो मेहरबानी है तुम पर मालकिन की जो यह चावल खाने को मिल रहा है और पानी भी तो भरा मिलता है टब में।"
... हाँ सो तो है कांव-कांव करते हुए कौए ने कहा। " अब घड़े में कंकड़ डालने का काम नहीं करना पड़ता मुझे।"
" सकोरे में, टब में मजे को पानी मिल ही जाता है।" उड़ती हुई टेलर बर्ड आई और कहने लगी," मजे आ गए। अच्छा लगता है । मैं तो अपने बच्चों को यहीं से पानी पिलाती और नहलाती हूँ।"
.... " और क्या फिल्टर लगे हैं तेरे यहाँ जो उससे पानी पिलाएगी। " गिलहरी ने तंज किया।
" नहीं लगे हैं तो लगवा ही लूँगी । कोई ऐसे वैसे घरों में घोंसला नहीं बनाती मैं। हाई सोसायटी में है मेरा बसेरा....।"
...." हाँ हाँ ! मालूम है धर्म राज जी के गार्डन में रहती हो तुम"। नसीबों वाली हो। कौवे ने अपना मंतव्य दिया और बोला ,"आज तो यहाँ महिला मंडली है वरन् एक बोतल खोल कर पीने को मिल जाती तो क्या बात होती ?"
....." हा हा हा! बाबा आदम के जमाने की बातें करते हैं आप तो। अब क्या महिला और क्या मर्द,सब एक बराबर हैं। देखा नहीं है किसी खिड़की से ? अरे भाई खिड़की पर कौन बैठने देगा आपको। यह अधिकार तो हमको दिया है कुदरत ने। सबके घर में ताक-झांक ,खबर पता रहती है हमें तो भाईसाहब..! कभी चुपके से रात में आ जाना हमारे बंगले पर "। कबूतर ने कहा...
...." हा हा हा बड़े आये बंगले वाले । अब लोगों ने अपने घरों के बाहर खिड़की के ऊपर छज्जा बनाना भी बंद कर दिया है। पर आदत से मजबूर हो.। इंसान के घरों के मोखलों में ही आनंद आता है तुम्हें तो। " हमारी तरह पेड़ पर क्यों नहीं रहते बरखुरदार ! " कौवे और अन्य परिंदों ने सवाल किया।
...." हम इंसानों की तरह आजीवन जोड़े बना कर रहते हैं, इसीलिए हमें उनके घर अच्छे लगते हैं।" कबूतर ने अपनी बात बड़े गौरव के साथ गर्दन मटकाते हुए कहा।
...." ये लीजिए, इंसानों की तरह ! इंसान पक्षियों की तरह जोड़े बना रहा है और ये महाशय..इंसान के वैंन्टीलेशन होल में इंसान का चोला पहनने जा रहे हैं."। बहुत देर से ताक में बैठे गिद्ध ने गिलहरी पर झपट्टा मारते हुए कहा...
.....पूरी महफ़िल में सन्नाटा पसर गया। गिद्ध थोड़ी ही देर में सबकी आँखों से ओझल हो गया ।
