Sandeep Murarka

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पद्मश्री प्रो. दिगंबर हांसदा

पद्मश्री प्रो. दिगंबर हांसदा

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नाम : प्रो. दिगंबर हांसदा
पदक, वर्ष व क्षेत्र : पद्मश्री, 2018, साहित्य एवं शिक्षा
जन्म तिथि : 16 अक्टूबर, 1939
जन्म स्थान : दोवापानी, पोस्ट बेको, घाटशिला क्षेत्र, जिला पूर्वी सिंहभूम, झारखंड - 832304
जनजाति : संताली
निधन : 19 नवंबर, 2020
निधन स्थल : सारजोम टोला, करनडीह, जमशेदपुर, झारखंड
पिता : सोमाय हांसदा
माता : सुरबलि हांसदा
पत्नी : पार्वती हांसदा

जीवन परिचय - खनिज संपदा से समृद्ध राज्य झारखंड, जिसकी रत्नगर्भा भूमि के हर जिले में कुछ ना कुछ छिपा पड़ा है। पलामू में चांदी है, तो धनबाद में कोयला, हजारीबाग में टीन, शीशा और टंगस्टन है, तो डाल्टेनगंज में ग्रेफाइट और लोहरदगा में बॉक्साइट है। कोडरमा में अबरक है, तो रांची में चीनी मिट्टी और दामोदर घाटी में चूना पत्थर है। सरायकेला में क्रोमियम और काईनाइट, पश्चिमी सिंहभूम में मैंगनीज, डोलोमाइट और लौह अयस्क है, वहीं पूर्वी सिंहभूम में यूरेनियम, तांबा और सोना का अकूत भंडार है। किंतु इन सबके अलावा हर जिले में है अपनी एक विशिष्ट जनजातीय संस्कृति, जो झारखंड की पहचान को देश के मानचित्र पर अलग स्थापित करती है। उसी में एक है जिला पूर्वी सिंहभूम, जहां औद्योगिक मूल्यों को आत्मसात करती टाटा स्टील कंपनी स्थापित है। उसी टाटा की नगरी जमशेदपुर में एक जनजातीय शख्शियत ने संताली भाषा को राष्ट्रपति भवन की ड्योढ़ी तक पहुंचा दिया। जिसप्रकार टाटा कंपनी में एक मजदूर लौह अयस्क को गर्म भट्टी में तपाकर लोहा प्राप्त करता है। उसी प्रकार प्रोफेसर दिगंबर हांसदा ने गहन अध्ययन व शोध की भट्टी में संताली भाषा को तपाकर पद्मश्री का सम्मान प्राप्त किया।

प्रो. दिगंबर हांसदा का जन्म जमशेदपुर के समीप एक गांव के जनजातीय कृषक परिवार में हुआ था । कुशाग्र बुध्दि हांसदा की प्राथमिक शिक्षा राजदोहा मिडिल स्कूल से हुई, उन्होने बोर्ड की परीक्षा मानपुर हाई स्कूल से उत्तीर्ण की। उन्होंने 1963 में रांची यूनिवर्सिटी से राजनीति विज्ञान में स्नातक और 1965 में एमए किया। वे अपने पीछे दो पुत्र पूरन एवं कुंवर और दो पुत्रियां सरोजनी एवं मयोना को छोड़ गए हैं, उनकी एक पुत्री तुलसी उनके सामने ही ईश्वर के धाम को जा चुकी थी।

योगदान - आदिवासी समुदाय और भाषा के उत्थान के क्षेत्र में प्रोफेसर हांसदा का महत्वपूर्ण योगदान रहा। विशेषकर संताली भाषा की सर्वमान्यता, विकास और प्रसार के लिये वे जीवनपर्यंत प्रयत्नशील रहे। शिक्षाविद् प्रो. हांसदा जिला पूर्वी सिंहभूम के करनडीह में अवस्थित लालबहादुर शास्त्री मेमोरियल कॉलेज (एलबीएसएम कॉलेज) के प्राचार्य थे। शिक्षा के प्रति उनका रुझान व समर्पण ऐसा था कि सेवानिवृति के काफी समय बाद तक भी वे अपने कॉलेज में कक्षाएं लेते रहे, वह भी अवैतनिक, पूर्णतः निःशुल्क। केवल एक ही जज्बा कि कैसे ज्यादा से ज्यादा बच्चों को संताली भाषा व ओलचिकि लिपि का ज्ञान दिया जा सके। सरल व सादगी पूर्ण जीवन जीने वाले दिगंबर हांसदा ने कोल्हान विश्वविद्यालय का सिंडिकेट सदस्य रहते हुए शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में संताली को शामिल करने हेतु मजबूती से अपना पक्ष रखा। उन्होंने यूनिवर्सिटीज में क्षेत्रीय भाषाओं विशेषकर जनजातीय लिपियों को प्रोत्साहित करने पर सदैव जोर दिया। वर्ष 2017 में दिगंबर हांसदा आईआईएम बोधगया के गवर्निंग बॉडी के सदस्य बनाए गए। आदिवासियों के मध्य शिक्षा के प्रसार के लिये चिंतित रहने वाले प्रो. हांसदा ने ग्रामीण क्षेत्रों में टाटा स्टील एवं सरकार के सहयोग से कई विद्यालय प्रारंभ करवाए। टिस्को आदिवासी वेलफेयर सोसायटी का सचिव रहते हुये उन्होंने आदिवासी हितों से संबंधित कई अनूठे कार्य किये। उनके नेतृत्व में सोसायटी ने औद्योगिक क्षेत्र में आदिवासियों के लिए नौकरी के नए अवसर पैदा करने पर ध्यान केंद्रित किया और आदिवासी शिक्षित युवाओं के लिये कई व्यावसायिक पाठ्यक्रम चलाए।

लेखक दिगंबर हांसदा ने सिलेबस की कई पुस्तकों का देवनागरी से संताली में अनुवाद किया। उन्होंने इंटरमीडिएट, स्नातक और स्नातकोत्तर के लिए संताली भाषा का कोर्स संग्रहित किया। उन्होंने भारतीय संविधान का संताली भाषा की ओलचिकि लिपि में अनुवाद करने के साथ ही कई पुस्तकें भी लिखीं । स्कूल कॉलेज के पाठ्यक्रम में संताली भाषा की पुस्तकों को जुड़वाने का श्रेय प्रो. दिगंबर को ही जाता है। ना केवल भारत बल्कि नेपाल की अधिकारिक भाषाओं में संताली को मान्यता दिलाने हेतु प्रो. दिगंबर हांसदा के अथक प्रयासों को याद किया जाता रहेगा। संताली भाषा को विश्व पटल पर पहुंचाने में प्रो. दिगंबर हांसदा का अविस्मरणीय योगदान रहा। 

उनकी कृतियां - सरना गद्य-पद्य संग्रह, संताली लोककथा संग्रह, भारोतेर लौकिक देव देवी, गंगमाला , संथालों का गोत्र

प्रो. हांसदा केंद्र सरकार के जनजातीय अनुसंधान संस्थान एवं साहित्य अकादमी के सदस्य रहे। विद्वान प्रो. हांसदा ज्ञानपीठ पुरस्कार चयन समिति (संताली भाषा) के सदस्य रहे। वे  सेंट्रल इंस्टीच्यूट ऑफ इंडियन लैंग्वैज मैसूर , ईस्टर्न लैंग्वैज सेंटर भुवनेश्वर में संताली साहित्य के अनुवादक, आदिवासी वेलफेयर सोसाइटी जमशेदपुर, दिशोम जोहारथन कमिटी जमशेदपुर एवं आदिवासी वेलफेयर ट्रस्ट जमशेदपुर के अध्यक्ष रहे। साहित्यकार दिगंबर हांसदा जिला साक्षरता समिति पूर्वी सिंहभूम,  संताली साहित्य सिलेबस कमेटी, यूपीएससी, नयी दिल्ली और जेपीएससी, झारखंड के सदस्य भी रहे। कलमकार दिगंबर हांसदा ने आदिवासियों के सामाजिक व आर्थिक उत्थान के लिए पश्चिम बंगाल व ओडिशा में भी काफी काम किया। उन्होंने जनजातीय कलाकारों से लोककथाओं और लोकगीतों को एकत्रित कर संकलित किया। आदिवासियों के मध्य साहित्यिक रूचि बढ़ाने हेतु वे सदैव प्रयासरत रहे, जिसका नतीजा है कि आज संताली की कई पुस्तकें राष्ट्रीय साहित्यिक फलक पर चमक रही हैं।


ज्वलंत समस्या पत्थलगढी को गलत परंपरा मानने वाले विद्वान प्रो. हांसदा सादगी पूर्ण जीवन जीने वाले वृहत व्यक्तिव के स्वामी थे। शिक्षाविद् , साहित्यकार, एक्टीविस्ट, समाजसेवी, आदिवासी समुदाय में शिक्षा के प्रसारक एवं इन सबसे बढ़कर एक नेक इंसान के रूप में प्रो. हांसदा ने झारखंड ही नहीं देश भर में अलग पहचान कायम की। 


सम्मान एवं पुरस्कार - वर्ष 2018 में संताली भाषा के विद्वान प्रो. दिगंबर हांसदा को साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया। ऑल इंडिया संताली फिल्म एसोसिएशन द्वारा प्रो. हांसदा को लाईव टाइम ऐचिवमेंट अवार्ड प्रदान किया गया। वर्ष 2009 में निखिल भारत बंग साहित्य सम्मेलन ने उन्हें स्मारक सम्मान से सम्मानित किया, वहीं भारतीय दलित साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा उन्हें डॉ. अंबेडकर फेलोशिप प्रदान किया जा चुका है। इंटरनेशनल फ्रेंडशीप सोसायटी नई दिल्ली ने उनको भारत गौरव सम्मान से सम्मानित किया था। इन सबके अलावा 37 बटालियन एनसीसी एवं अन्य कई संगठनों व संस्थानों द्वारा समय समय पर प्रो. हांसदा को सम्मानित किया जाता रहा।



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