महात्मा
महात्मा
अगर दक्षिण अफ्रीका में मोहन दास करमचंद गांधी को भारतीयों पर भेदभाव का सामना न करना पड़ता. आरंभ में उन्हें प्रथम श्रेणी कोच की वैध टिकट होने के बाद तीसरी श्रेणी के डिब्बे में जाने से इंकार करने के लिए ट्रेन से बाहर न फेंका होता. बहुत सी घटनाओं में से एक अदालत के न्यायाधीश ने गांधी जी को अपनी पगड़ी उतारने के लिए आदेश न दिया होता तो शायद मोहन दास करमचंद गांधी महात्मा गांधी भी न होते. समय और भाग्य ने साधारण से शख्स को अहिंसा का पुजारी बना दिया, वो भी हिंसा का शिकार होने के बाद. हर बात एक दूसरे की पूरक होती है. यह भी अजीब इत्तेफाक है कि जहां अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी हिंसा के शिकार हुए, वहीं हिंसा (शक्ति) के बल पर राक्षसों का वध करने वाली देवी की आराधना करने वाले असुरी वस्तुओं का सेवन तक नहीं करते. कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि पूर्ण सफलता के लिए अहिंसा-हिंसा के बीच तालमेल होना जरूरी है. सिर्फ अहिंसा का गुणगान करने से दुश्मन छाती पर चढ़ आता है तो हिंसा करने से राक्षसी प्रवृत्तियां घर कर जाती है. इन दोनों के सटीक मिश्रण से ही सफलता का स्वाद चखा जा सकता है.