मेरी गाड़ी/तेरी गाड़ी
मेरी गाड़ी/तेरी गाड़ी
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टेढ़ी मेड़ी पहाड़ी सड़के, सांप सीढ़ी सी बिझी हुई। मैं, चमन, पुटरू, चीका चारों का दिन भर का काम था। आती जाती बसों/ट्रकों और कारों को देखना। आस पास के इलाके में सबसे ऊंचा था हमारा गांव, एकदम पहाड़ के शिखर पर। गाड़ियों का आवागमन बहुत कम था। चबांह गांव चार किलोमीटर नीचे था। चबांह के मोड़ पर गाड़ी सबसे पहले दिखती थी। जो सबसे पहले देख कर उसका रंग ठीक से देख कर जोर से बोलता, वह गाड़ी अगले पंद्रह मिनट के लिए उसकी हो जाती। पंद्रह मिनटों में गाड़ी दोसड़का से घूम कर लोहर्डी गांव होती हुई, रूंजा जाकर ओझल हो जाती। कोई कोई, दोसड़का से शिमला की तरफ़ चली जाती, ऐसे में मालिकाना हक सिर्फ पांच मिनट का ही रहता।
चमन सबसे छोटा था, चिका से आठ महीने छोटा। चमन के हिस्से में बहुत कम गाड़ियाँ आती। जब वो रोने लगता तो हम सभी अगली गाड़ी उसको दे देते।
पुटरू सबसे अमीर था, ज्यादातर गाड़ियाँ सबसे पहले वही देखता था। शाम तक हर रंग की गाड़ी, ट्रक, हिमाचल रोडवेज, हरियाणा रोडवेज की बसें, सभी तरह की गाड़ियाँ उसके पास होती।
कभी कभार दौड़ कर गाड़ियों को पकड़ने की असफल कोशिश भी करते।
सपनों का सुनहरा संसार, मायावी संसार था। रोज़ मालिकाना हक हासिल करने की दौड़, कुछ भी हासिल न करने के लिए। वो पंद्रह मिनट की मलकीयत सम्राट बना देती थी।
चमन का रोना, फिर उछलना खुशी से। पुटरू का रोज़ जीत जाने का विश्वास। दोस्ती पर कभी फीकी नहीं पड़ती। रोज़ बेनागा चारों आते थे।
वो सपने सच होने से पहले टूट जाते थे, फिर भी खुशी घेरे रहती दिन भर रोज़ रोज़।
आज जब गाड़ी में बैठ कर, गाड़ी स्टार्ट करता हूं , सोचता हूं किसकी गाड़ी होगी यह, मेरी, पुटरू, चिका की या रोते चमन की। शायद किसी बच्चे के पास इतना वक़्त नहीं है आज।
स्कूल, ट्यूशन , टीवी, वीडियो गेम, प्ले स्टेशन, कंप्यूटर, लैपटॉप और मोबाइल।
गाड़ियों का कारोबार करने वाले राजसी बच्चे इस दौर में नहीं मिलेंगे। शायद मिल भी जाएं?