मेरी असफ़लता
मेरी असफ़लता
गुज़र गये जीवन के 43-44 साल मगर लोग आगे बढ़ते रहे हम पीछे होते गये। कर्म करके भी जब हमें कोई सफलता नहीं मिली आज तक तो मुझे खुद से ही अर्थात अपने आप से ईर्ष्या होने लगी। आज भी मैं परिस्थिति से लड़कर अपनी नसीब को ही कोसता हूँ जब देखता हूँ मेरे साथ के लोग आज कहाँ से कहाँ पहुँच गये। ईर्ष्या होती हमें अपनी असफलताओं पर क्या मेरी क़िस्मत इतनी खराब है कि आराम की ज़िन्दगी मैं भी जी सकूँ।
ख़ैर, प्रारब्ध भी तो भोगना पड़ता है हर इन्सान को, हम इसे अपनी प्रारब्ध का फल समझकर किंकर्तब्य विमूढ़ होकर मन से झेल रहा हूँ अपनी ज़िन्दगी को। एक बहुत पुरानी कहावत है " खाली दिमाग़ , शैतान का घर "
ठीक निवर्तमान में मेरी यही स्थिति बन चुकी है ।
जो भी दिमाग़ में आता है बस कलम से उसे दुनिया के पटल पर उकेरकर दिल को तसल्ली दिए जा रहा हूँ।